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Saturday, 29 October 2022

मैं चाहूँ

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!

मैं चाहूँ....

नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!

मैं चाहूँ....

कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!

मैं चाहूँ....

मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!

मैं चाहूँ....

तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!

मैं चाहूँ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 April 2020

प्यासा

इतना, छलका-छलका सा!
हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!

ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?

अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!

लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!

ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!

तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ, 
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!

इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।