Tuesday 19 October 2021

धागे

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

कितने अंजाने थे तुम, और बेगाने से हम,
इक सिमटे से, पल थे तुम, 
और कितने बिखरे से, बादल थे हम,
यूं, चुनते-चुनते, तुझ संग खुद को,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

यूं, आसान न था, बिखरे ये टुकड़े चुनना,
यूं धागों संग, चिथड़े सिलना,
भरमाए से, इस गगन के तारे थे हम,
यूं, चलते-चलते, अंधेरे से राहों में,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

हौले से, तुम आ बैठे, हृदय के आंगन में,
यूं बरसे, घन जैसे सावन में,
प्यासे, पतझड़ के, सूखे उपवन हम,
यूं, रीतते-रीतते, भीगी बारिश में,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

अब जाने, कितने जन्मों का, ये बंधन है,
किन धागों का, गठबंधन है,
बैठे हैं, तेरे इन आँचल के, साए हम,
यूं, सुनते-सुनते, जीवन के किस्से,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

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