सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!
अक्सर ओढ़ कर, खामोशियां,
लिए अल्हड़, अनमनी, ऊंघती, अंगड़ाइयां,
बिछा कर, अपनी ही परछाईयां,
चल देते हो, कहां!
सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
पल वो क्या, जो चंचल न हों,
प्रणय हों, पर अनुनय-विनय के पल न हों,
संग हो, पर ये कैसी तन्हाईयां,
खोए हो, तुम कहां!
सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
देखो, वो पर्वत, कब से खड़ा,
छुपाए पीड़ मन के, तन्हाईयों में, हँस रहा,
जरा, फिर बिछाओ परछाईयां,
तुम भी, बैठो यहां!
सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
अक्सर, पलों को, बिखेर कर,
यूं ही हौले से, बहते पलों को झकझोरकर,
छोड़ कर, उच्श्रृंखल क्षण यहां,
चल देते हो, कहां!
सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 05 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार ....
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(5-10-21) को "एक दीप पूर्वजों के नाम" (चर्चा अंक-4208) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार ....
Deleteवाह बहुत बहुत बहुत ही सुंदर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
DeleteबHउत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteउम्मदा रचना ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteजीवन से ओतप्रोत बहुत सुंदर भाव।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
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