महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
नयन के, बहते नीर में भिगोए ताम्र-पत्र,
उलझे, गेसुओं से बिखरे हर्फ,
बयां करते हैं, दर्द!
महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
वो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!
महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
वो, नृत्य करते, खनकते क्षण,
समेटे हुए हों बांध कर, पंक्तियों में चंद,
बदलकर वेदना भी रूप कोई,
कह रही अब, वाह!
महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
मानता हूं, रवि से आगे कवि,
हमेशा, कल्पनाओं से आगे, भागे कवि,
खुद भी जागे, सबकी जगाए,
सोई पड़ी, संवेदनाएं!
महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
बेवाक, ख्यालों का विचरना,
खगों का, मुक्ताकाश पे बेखौफ उड़ना,
शीष पर, पर्वतों के डोलना,
कवि की, ये साधना!
महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-12-2021) को चर्चा मंच "रजनी उजलो रंग भरे" (चर्चा अंक-4279) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार ....
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
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ReplyDeleteवो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!.. कवि मन की सुंदर सटीक थाह ।
...उत्कृष्ट रचना ।
हार्दिक आभार ....
Deleteवाह!बहुत खूब।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार ....
Deleteउम्दा रचना आदरणीय ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteबहुत ही उम्दा सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
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