Showing posts with label साधना. Show all posts
Showing posts with label साधना. Show all posts

Monday 13 December 2021

बिखरे हर्फ

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, संवेदनाओं में पिरोए शब्द,
नयन के, बहते नीर में भिगोए ताम्र-पत्र,
उलझे, गेसुओं से बिखरे हर्फ,
बयां करते हैं, दर्द!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, नृत्य करते, खनकते क्षण,
समेटे हुए हों बांध कर, पंक्तियों में चंद,
बदलकर वेदना भी रूप कोई,
कह रही अब, वाह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

मानता हूं, रवि से आगे कवि,
हमेशा, कल्पनाओं से आगे, भागे कवि,
खुद भी जागे, सबकी जगाए,
सोई पड़ी, संवेदनाएं!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

बेवाक, ख्यालों का विचरना,
खगों का, मुक्ताकाश पे बेखौफ उड़ना,
शीष पर, पर्वतों के डोलना,
कवि की, ये साधना!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 5 September 2021

मझधार मध्य

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

रचे प्रपंच कोई, करे कोई षडयंत्र,
बुलाए पास कोई, पढ़कर मंत्र,
जगाए रात भर, जलाए आँच पर,
हर ले, सुधबुध, रखे बांध कर,
न चाहे, फिर भी, छूटना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ये कैसा अर्पण, कैसा ये समर्पण,
ये कैसी चाहत, ये कैसा सुखन,
दहकती आग में, जले है इक तन,
सदियों, वाट जोहे कैसे विरहन,
न जाने, ये कैसी, साधना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ढ़ूंढ़े मझधार मध्य, इक सुखसार,
बसाए, धार मध्य, कोई संसार,
भिगोए एहसास, धरे इक विश्वास,
रचे गीत, डूबती, हर इक साँस,
न छूटे, मन का ये अंगना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 29 July 2021

जागती प्रकृति

वो, शून्य सा किनारा, स्तब्ध वो नजारा,
शायद, जाग रही हो प्रकृति,
वर्ना, ये पवन, न यूँ हमें छू लेती,
इक सदा, यूँ, हमें दे जाती!

निःशब्द कर गई, ठहरी सी झील कोई,
सदियों, कहीं हो जैसे खोई,
पथराई सी, डबडबाई, वो पलकें,
बोलती, कुछ, हल्के-हल्के!

वो शिखर! पर्वतों के हैं, या कोई योगी,
खुद में डूबा, तप में खोया,
वो तपस्वी, ज्यूँ है, साधना में रत,
युगों-युगों, यूँ ही, अनवरत!

हल्की-हल्की सी, झूलती, वो डालियाँ,
फूलों संग, झूमती वादियाँ,
बह के आते, वो, बहके से पवन,
बहक जाए, क्यूँ न ये मन!

बे-आवाज, गहराता कौन सा ये राज!
जाने, कौन सा है ये साज,
बरबस उधर, यूँ, खींचता है मौन,
इक सदा, यूँ देता है कौन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 26 March 2021

फागुनी बयार

संग तुम्हारे, सिमट आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

कल तक न थी, ऐसी ये बयार,
गुमसुम सी, थी पवन,
न ही, रंगों में थे ये निखार,
ले आए हो, तुम्हीं, 
फागुनी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, निखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

जीवंत हो उठी, सारी कल्पना,
यूँ, प्रकृति का जागना,
जैसे, टूटी हो कोई साधना,
पी चुकी हो, भंग,
सतरंगी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, बिखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

तुम हो साथ, रंगों की है बात,
हर ओर, ये गीत-नाद,
मोहक, सिंदूरी सी ये फाग,
कर गई है, विभोर,
अलसाई सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, उभर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 27 July 2018

पथ परिचायक

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पथ तूने जो दिखलाया मुझको,
उस पथ ही मैं रहा अग्रसर,
कंटक ही कंटक मिले थे पथ पर,
निर्बाथ चला मैं उन कांटो पर,
हँसकर सहे मैंने, दंश बड़े दुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पग-पग सांसें थी इक जंग सी,
सुख! जैसे उड़ती पतंग थी,
बातें तेरी थी मेरी राहों की शिखा,
दीपक सा मैं हरदम ही जला,
सहता रहा मैं, वो तपिश पीड़ादायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

सुख की नींद मिली ना पलभर,
दुर्गम राहों पर चलता चला,
तिल तिल जल फूल सा खिला,
हँसकर गम से गले मिला,
चुपचाप सहे, पीर बड़े कष्टदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

अब सफल हुआ या मैं असफल,
साधना तेरी ही है मेरा संबल,
विमुख मैं इनसे पल भर भी नहीं,
नायक मेरा है बस तू ही,
साधना तेरी, अति ही सुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक? 

Sunday 27 May 2018

प्रार्थना

श्रद्धा सुमन, है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

स्वीकार लो ये मेरी प्रार्थना,
निष्काम निष्कपट मेरी साधना,
भूल कोई भी, गर मैं करूं,
तू ही, बाँहें मेरी थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना यही इक आशीर्वचन....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

कहीं भटकें हो जब राहों में,
विमुख हों कर्मपथ से ये कदम,
खुद पे अहंकार मैं करूं,
तुम मार्गदर्शक बनना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना ज्ञान की ऐसी किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

प्रभा विहीन हो जब प्रभात,
दुष्कर सी हो जब ये काली रात,
अपनी ही साये से मैं डरूं,
तू ही, मशाल थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना प्रकाशित वो ही किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

Thursday 11 February 2016

मेरी साधना

गीत मैं वो गा न सका, क्या कभी गा पाऊंगा?

सदियों साधना की उस संगीत की,
अभिमान था मुझको मेरे दृढ़ विश्वास पर,
पर साथ दे न सका मुझको मेरा अटल विश्वास,
असफल रही कठिन साधना मेरी।

गीत मैं वो गा न सका, गीत मैं वो दोहरा न सका।

सुर ही कठिन है इस जीवन संगीत का,
या साधना के योग्य नही बन पाया मै ही शायद,
साधक हूँ मैं पर! निरंतर रत रहूंगा साधना मे,
है मुझको विश्वास लगन पर मेरी।

गीत मैं जो गा न सका, गीत मैं वो फिर दोहराऊंगा!