जो हाथों से परे.....
याद करे, वो ही बचपन,
वही लौ, फिर छू लेने का पागलपन,
बरस चला, जो घन,
पतझड़ में, वही सावन का वन,
करे यतन,
वही पाना चाहे मन!
जो हाथों से परे.....
दूर जितना, वो क्षितिज,
प्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
होते, अंकुरित रोज,
शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
अलब्ध जो,
वही पाना चाहे मन!
जो हाथों से परे.....
कैद भला, कब वो होते,
बहते पवन, इक ठांव कहां रुकते,
अक्सर, चुभो जाते,
छुवन भरे, कई हौले से कांटे,
जो डसते,
वही पाना चाहे मन!
जो हाथों से परे.....
पूर्ण, अतृप्त चाह कहां,
आस लिए, यह मानव, मरता यहाँ,
पाने को, दोनो जहां,
मानव, घृणित पाप करता यहां,
स्वार्थ पले,
वही पाना चाहे मन!
जो हाथों से परे.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
कैद भला, कब वो होते,
ReplyDeleteबहते पवन, इक ठांव कहां रुकते....बहूत खूब
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 29 सितंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4567 के 8 लिंकों में शामिल किया गया है| आईएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteदूर जितना, वो क्षितिज,
ReplyDeleteप्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
होते, अंकुरित रोज,
शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
अलब्ध जो,
वही पाना चाहे मन!
अलभ्य को पाना चाहता मन
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर।
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteमन कहां तृप्त होता है भौतिक सुखों में ! सुन्दर कविता
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteमनमौजी मन की यही गति और मति ... अति सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
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