Wednesday, 28 September 2022

जो हाथों से परे


जो हाथों से परे.....

याद करे, वो ही बचपन,
वही लौ, फिर छू लेने का पागलपन,
बरस चला, जो घन,
पतझड़ में, वही सावन का वन,
करे यतन,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

दूर जितना, वो क्षितिज,
प्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
होते, अंकुरित रोज,
शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
अलब्ध जो,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

कैद भला, कब वो होते,
बहते पवन, इक ठांव कहां रुकते,
अक्सर, चुभो जाते,
छुवन भरे, कई हौले से कांटे,
जो डसते,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

पूर्ण, अतृप्त चाह कहां,
आस लिए, यह मानव, मरता यहाँ,
पाने को, दोनो जहां,
मानव, घृणित पाप करता यहां,
स्वार्थ पले,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

आभार ......

16 comments:

  1. कैद भला, कब वो होते,
    बहते पवन, इक ठांव कहां रुकते....बहूत खूब

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 29 सितंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4567 के 8 लिंकों में शामिल किया गया है| आईएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

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  4. दूर जितना, वो क्षितिज,
    प्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
    होते, अंकुरित रोज,
    शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
    अलब्ध जो,
    वही पाना चाहे मन!
    अलभ्य को पाना चाहता मन
    वाह!!!!
    बहुत ही सुन्दर।

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  5. मन कहां तृप्त होता है भौतिक सुखों में ! सुन्दर कविता

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  6. मनमौजी मन की यही गति और मति ... अति सुन्दर अभिव्यक्ति।

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