फिक्र, उनकी ही फिर भी.....
यूं, बिछड़ कर, सदा जिक्र में जो रहे,
क्या हो, कल किसी राह में, अगर वो फिर मिले!
जग उठे, शायद, फिर वो ही अनबुने सपने,
जल उठे, फिर, अधबुझी सी वो शमां,
इक अंधेरी रात में!
फिक्र, उनकी ही फिर भी.....
जिक्र फिर, उनकी ही हो, हर घड़ी,
जल उठे, अंधेरों में, इक संग, करोड़ों फुलझड़ी,
जलती हर किरण, राहों में, उनको ही ढूंढे,
बस फिक्र ये ही, कि वो फिर ना रूठे,
यूं जरा सी बात में!
फिक्र, उनकी ही फिर भी.....
गुम है मगर, उन रास्तों का सफर,
न उन राहों का पता, न उन दरक्तों की है खबर,
धूमिल से हो चले, उन कदमों के निशान,
गहराते इस रात का, न कोई विहान,
न ही कोई साथ में!
फिक्र, उनकी ही फिर भी.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह! बहुत सुंदर और प्यारी कविता इस जीवन पथ की यात्रा की विसंगतियों के भेद खोलती हुई। बधाई और आभार।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय विश्वमोहन जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 06 सितम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर आभार आदरणीया दी
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (6-9-22} को "गुरु देते जीवन संवार"(चर्चा अंक-4544) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
सादर आभार आदरणीया
Deleteफ़िक्र जो जीवन भर साथ चलती है,बड़ी खूबसूरती से आपने उसे इस रचना में प्रस्तुत किया है आदरणीय सुन्दर, भावप्रवण हृदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर। 'फिक्र उनकी ही है फिर भी'- वाह। बहुत सुंदर हृदय स्पर्शी रचना। सादर।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteखूबसूरत रचना, बिछड़ के भी बिछड़े न कभी...सकारात्मक भाव| बधाई !!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deleteफिक्र शायद उन्हीं की ज़्यादा रहती है जो मिल कर भी न मिलें । अब इसे बिछड़ना कहते हैं तो पता नहीं । सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteसुन्दर भाव संयोजन .... फ़िक्र उनकी फिर भी वाह
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Delete