Sunday, 10 August 2025

छल

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

गुंजन, कंपन, सिहरन, तड़पन भरा वो आंगन,
सुने क्षण में, विरह भरा वो आलिंगन, 
कितना कुछ, मन भर लाया!

ये दामन, कितना भरा-भरा, हर ओर हरा-हरा,
नैनों में, अब भी, सावन सा नीर भरा,
शायद, वो ही क्षण गहराया!

जो छलता ना वो क्षण, यूं पिघलता न ये क्षण,
न जलता ये मन, न होता धुआं-धुआं,
न होता, एकाकी इक छाया!

आकुल ही रहा, व्याकुल भटकता ये आकाश,
लिए हल पल, अबुझ बूंदों की प्यास,
वहीं, क्षितिज पर उतर आया!

क्षण वो ही इक भाया, उस क्षण ने ही तड़पाया,
रंग, उस क्षितिज का, जब भी गहराया,
नैनों में, वो क्षण उभर आया!

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

No comments:

Post a Comment