फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....
उफक पर
सर रखकर
इठलाई रवि किरण,
झील में
तैरते फाहों पर,
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....
फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....
उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...
फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....
उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...
फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....