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Tuesday, 26 January 2016

तेरा अस्तित्व

इक जर्रा मात्र भी नही तू सृष्टि के विस्तार का,
अस्तित्व तेरा! व्योम के धूल कण सा भी नहीं!
इक लघुक्षण भी तो नही तू इस अनंतकाल का,
फिर क्यूँ भला इतना अभिमान तुझमें पल रहा।

अपनी लघुता का सत्य, तू स्वीकार कर यहाँ,
अस्तित्व की रक्षा को, तू संघर्ष कर रहा यहाँ,
पराशक्ति तो बस एक जो राज हमपे कर रहा,
फिर क्युँ भला तू नाज इतना खुद पे कर रहा।

उस दिव्य अनन्त की प्रखर से तो है तू खिला,
उस व्योम की ही किसी शक्ति ने तुझको जना,
इस धरा को उस शक्ति ने तेरी कर्मस्थली चुना,
फिर क्यूँ भला उस कर्मपथ से तू विमुख रहा।

Friday, 22 January 2016

रूठा अक्श मेरा

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही रूठता?

अक्स पूछता मुझसे बता मैं कौन हूँ?
निर्दयी भूल गए जब तुम ही मुझको,
पूछेगा जग में भला अब मुझको कौन?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही पूछता?

साथ दिया मैने तेरा पग-पग पर,
क्युँ रहता तू किसी और पर निर्भर,
तू ही बता कहाँ गई पहचान मेरी पर?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही पूछता?

लोग मुझे क्युँ कहते हैं लावारिश?
तेरे ही कर्मों ने जब जना है मुझको वारिश,
निष्ठुर भूल गए मुझको, की ना मेरी परवरिश?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही कहता?

जब जब तू रोया मैं भी था रोया,
तेरी सफलता की छाया मे बढ़ पाया,
पर तेरे गुरूर ने आज मुझको भी खोया।

मेरे अक्श का दामन आज मुझसे ही छूटता?

मेरा ही अक्श


झांकता हूँ बंद झरोखों के परदों से,
आ पहुँचा हूँ कहाँ जीवन पथ पर इतनी दूर?

धुंधली सी इक तस्वीर उभरती,
स्याह चादरों सी कुछ लिपटी दिखती,
जिग्याशावश पूछता हूँ मैं, कौन हो तुम?

कुछ क्षण वो मौन धारण कर गया,
कौतुहलवश आँखें फार उसे मैं देखता रह गया,
जिग्याशा बढ़ गई मेरी उस साए में।

संकोचवश फिर मौन तोड़ वो बोला.....!
कब से खड़ा हूँ मैं इस राह पर!
दुनियाँ ने भी ना पहचाना मुझको!
एक आस बस तुझसे बंधी थी पर!
तूमने भी ना पहचाना मुझको?

जिग्याशा और बढ़ गई थी मेरी,
मैंने फिर पूछा, बोलो तो कौन हो तुम?

रूंझी सी वाणी में वो बोला...आँखे खोल के देख,
बंद झरोखों के परदों को पूरी तरह खोल,
पहचान खुद को, अक्श हूँ मैं तुम्हारा ही, अब बोल?

जीवन के पथ पर साथ किसी का कौन दे पाता?
अक्श हूँ तेरा, साथ सदा मै तेरे ही रहता!
दर्द किसी को मुझसे न पहुँचे,
सपना किसी का मुझसे ना टूटे,
चुप इसीलिए मैं रह जाता हूँ,
अतीत के गर्भ में तुझे बार-बार ले चलता हूँ
अक्श हूँ तेरा! साथ सदा मै तेरे ही रहता हुूँ।

जब तेरा कोई सपना टूटा, टूटा हूँ मैं भी थोड़ा,
मेरी आँख भी बरसी है तड़पा हूँ मैं भी थोड़ा,
अक्श हूँ तेरा, साथ कभी तेरा मैंने ना छोड़ा।

हठात, हतप्रभ, विस्मित मैं देखता रह गया!!!!!

Wednesday, 20 January 2016

लक्ष्य

क्या लक्ष्य तेरा कहीं भटक चुका है?

साथ चला तू,
जिसे लेकर जीवन भर,
जिसकी फिक्र तू,
करता रहा सारी उमर,
वह मात्र स्थुल शरीर नहीं हो सकता?

क्या मार्ग तेरा गलत दिशा मुड़ चुका है?

तेरी चिन्ता तो,
तेरी काया के भी परे है,
पर भटकता तू,
सदा भौतिक सुख के पीछे है!
यश कीर्ति कहाँ रही तेरी प्राथमिकता?

क्या जीवन तेरा कहीं पर खो चुका है?

नभ पर तू,
ऊँचा उड़ता गिद्ध को देख,
उस ऊचाई पे,
उसे अहम के वहम ने है घेरा,
क्या कर्म उसके दे पाएगी उसे प्रभुसत्ता?

क्या कर्म पथ तेरा कहीं भटक चुका है?

Saturday, 16 January 2016

चिड़ियाँ का जीवन

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
आज काम बहुत से होंगे करने,
आबोदाना को उड़ना होगा मीलों,
मिटेगी भूख किस दाने से?
चैन की नींद कहाँ पाऊंगी?

दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती!

फिर घोंसले की करती फिकर,
किस डाल सुरक्षित रह पाऊँगी,
तिनके कहाँ सजाऊँगी,
बहेलियों की पैनी नजर से,
दूर कैसे रह पाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ को भविष्य का डर?

आनेवाली बारिश की फिकर,
आँधियों मे बिछड़ने का डर,
डाली टूट गई थी पिछली बार,
घौसले हो गए थे तितर बितर,
अन्डे कैसे बचाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

Saturday, 9 January 2016

झुरमुट के तले

झुरमुट के तले साए में बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

राहें रुबड़ खाबर,
नित् नई चिन्ताएँ,
न पीछे की बूझ,
न आगे रहा कुछ सूझ,
घर छोड़ा था क्या सोंचकर,
यह भी याद नहीं अब,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

बिटिया बड़ी हो गई होगी,
शायद हाथ पीले होंगे अब करने,
माँ भी अब दिखती होगी बूढ़ी,
कब वापस जा पाऊँगा?
क्या उन्हें फिर देख पाऊँगा?
जिम्मेवारियों की लगी है फेहरिस्त,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

लक्ष्य क्या था इस जीवन का?
लक्ष्य क्या साधा है मैंने?
दोनों मे इतनी क्युँ विषमता?
कल जो हैं मुझे करने,
क्या है वो मेरी विवशता?
भविष्य कहाँ ले जाए मुझको?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

पल जीवन के हैं अनिश्चित,
पर लक्ष्य सभी करने सुनिश्चित,
एहसानों का है बोझ प्रबल,
दायित्व इनके आगे निर्बल,
मार्ग सही क्या चुना है मैंने?
क्या इस राह सध पाएंगे दोनो?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

Thursday, 7 January 2016

मुक्ति सृष्टि पार


तू सोचता क्या मुसाफिर?

सृष्टि के उस पार
तुझे है जाना,
मुक्ति तेरी वहाँ खड़ी है,
अनन्त राह तेरी उस ओर।

मुड़ कर तू वापस,
क्या देखता बार-बार?
अनन्त हसरतें तेरी,
खीचे तुझको पीछे हर बार,
हंदयअन्तस के आँखो की
असीम गहराई से तू देख,
कौन साथ खड़ा है तेरे?
जिसकी राह तू रहा निहार!

जीवन का अन्त ही,
ब्रम्ह का अचल सत्य,
चक्षु पटल खोल तू,
इस सच से मुँह न मोड़,
मोह माया धन जंजाल,
सब कुछ छोड़कर पीछे,
चला जा उस राह तू,
मुक्ति तेरी वहाँ छुपी है,
अनन्त ले जाए जिस ओर!