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Wednesday, 5 April 2017

मन भरमाए

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

तू चल न तेज रे पवन, आस न मेरा डगमगाए,
उड़ती पतंग सा ये मन, न जाने किस ओर लिए जाए,
पागल सा ये मन, अब पल पल है ये घबराए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

ऐ सांझ के मुसाफिर, कोई साजन को ये बताए,
सांझ आने को हुई अब, कोई भूला भी घर लौट आए,
याद करके सारी कसमें, वादा तो अब निभाए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

लौ ये दीप की है जली, क्युँ न रस्ता तुम्हे दिखाए,
ये दो आँख मेरी है खुली, वो डेहरी ये हर क्षण निहारे,
पलकें पसारे ये रैन ढली, न चैन हिया में आए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

Tuesday, 29 March 2016

एक दिन खो जाऊँगा मैं

प्रीत का सागर हूँ छलक जाऊँगा नीर की तरह,
अंजान गीतों का साज हूँ बजता रहूँगा घुँघरुओं की तरह!

एक दिन,
खो जाऊँगा मैं,
धूंध बनकर,
इन बादलों के संग में!

मेरे शब्द,
जिन्दा रहेंगी फिर भी,
खुशबुओं सी रच,
साँसों के हर तार में!

बातें मेरी,
गुंजेगी शहनाईयों सी,
अंकित होकर,
दिलों की जज्बात में!

सदाएँ मेरी,
हवा का झौंका बन,
बिखर जाएंगी,
विस्मृति की दीवार में!

अक्श मेरी,
दिख जाएगी सामने,
दौड़ कर यादें मेरी,
मिल जाएंगी तुमसे गले!

परछाईं मेरी,
नजरों में समाएगी,
भूलना चाहोगे तुम,
मिल जाऊंगा मैं सुनसान मे!

निशानियाँ मेरी,
दिलों में रह जाएंगी
खो जाऊँगा कहीं,
मैं वक्त की मझधार में!

मुसाफिर हूँ, गुजर जाऊँगा मैं वक्त की तरह,
जाते-जाते दिलों में ठहर जाऊँगा मैं दरख्त की तरह!

Saturday, 9 January 2016

झुरमुट के तले

झुरमुट के तले साए में बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

राहें रुबड़ खाबर,
नित् नई चिन्ताएँ,
न पीछे की बूझ,
न आगे रहा कुछ सूझ,
घर छोड़ा था क्या सोंचकर,
यह भी याद नहीं अब,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

बिटिया बड़ी हो गई होगी,
शायद हाथ पीले होंगे अब करने,
माँ भी अब दिखती होगी बूढ़ी,
कब वापस जा पाऊँगा?
क्या उन्हें फिर देख पाऊँगा?
जिम्मेवारियों की लगी है फेहरिस्त,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

लक्ष्य क्या था इस जीवन का?
लक्ष्य क्या साधा है मैंने?
दोनों मे इतनी क्युँ विषमता?
कल जो हैं मुझे करने,
क्या है वो मेरी विवशता?
भविष्य कहाँ ले जाए मुझको?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

पल जीवन के हैं अनिश्चित,
पर लक्ष्य सभी करने सुनिश्चित,
एहसानों का है बोझ प्रबल,
दायित्व इनके आगे निर्बल,
मार्ग सही क्या चुना है मैंने?
क्या इस राह सध पाएंगे दोनो?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?