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Sunday, 4 October 2020

चुप सा सत्य


बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

उन ख़ामोशियों में, न जाने कितने थे सवाल!
मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

शायद, वो इक चीख थी, जो कहीं रही दबी!
सिमट कर, शोर के आवरण में!
अन्तः,गहरी सी टीस थी!
पर ये अन्तः करण, तौलता है कौन?
अन्तर्मन, झांकता है कौन?
चुप-चुप ही रहा, खुद से कर सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

वो निष्काम सत्य, बेचैन सा, जूझता ही रहा!
समक्ष असत्य के, वो कब झुका!
पर, दुरूह वो काल था!
सत्य पर पड़ा, असत्य का जाल था!
तोड़ता है, वो जाल कौन?
सत्य को रहा, सदा ही इक मलाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 January 2020

अन्तिम शब्द तेरे

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,
नम सी, हुई पलकें,
फिर न, चलके,
कभी थी, वो सांझ आई,
वो हर्फ,
खोए थे, मेरे!

शब्द वो!
अन्तिम थे तेरे....

वही, संदर्भ,
शब्दविहीन, अन्तहीन वो संवाद,
सहमा सा, वो क्षण,
मन का रिसाव,
टीसता, वही इक घाव,
घुटती चीखें,
कैद स्वर,
न, मिल पाने का डर,
उठता सा धुआँ,
धुँध में, कहीं खोते तुम,
कहीं मुझमें होकर, 
गुजरे थे, तुम,
हर घड़ी, गूँजते हैं अब,
वो हर्फ, 
जेहन में, मेरे!

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 22 March 2018

चुप्पी! बोलती खामोशी...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप्पी तोड़ती हुई इक खामोशी,
बंद लफ्जों की वो सरगोशी,
वो नजरों की भाषा में चिल्लाना,
दूर रहकर भी पास आ जाना,
खामोशी का वो इक चुप सा तराना...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप-चुप सा था, वो इक पर्वत,
बड़ी गहरी थी वो खामोशी,
वो खामोशियों में कुछ बुदबुदाना,
यूं चुपचाप ही कहते जाना,
उस ओर कदमों का यूं मचल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बादलों की, वो बोलती खामोशी,
बरस गई जब वो जरा सी,
बूंदों का यूं फिर जमी पर बिखरना,
यूं ही तब चेहरों का भिगोना,
चुपचाप लय में बरसात की हो लेना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप कहां थी, ये बहती हवा भी,
चली वो भी आँचल उड़ाती,
गेसूओं का फिर हवाओं में लहराना,
सिहरन बदन में भर जाना,
बहती हवा संग, झूलों सा झूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बोलती बहुत है, ये खामोशियाँ,
चुप्पी तोड़ती है इनकी जुबां,
यूं ही तन्हाईयों का कहीं गुनगुनाना,
खामोश सा वो ही तराना,
तन्हा वादियों में, खूद को भूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....
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