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Sunday 19 February 2023

पल सारे

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

शान्त थे बड़े, बड़े निष्काम थे,
पल वो ही, तमाम थे,
बह चली थी, जिस ओर, जिन्दगी,
ठहरी, वक्त की वो ही धार,
बनी आधार थी,
बस, गिनता रहा मैं ....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

असीमित चंचलता, यूं सिमेटे,
समय, खुद में लपेटे,
देकर, ठहरी जिंदगी को, चपलता,
एक सूने मन को, चंचलता,
रही यूं रोकती,
बस, देखता रहा मैं .....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

मंत्रमुग्ध करते, वो स्निग्ध पल,
ओढ़े, होठों पे छल,
रही खींचती, बस, अपनी ही ओर,
कैसी, अनोखी सी वो डोर,
कैसा ये ठौर,
बस, ठहरा रहा मैं .....

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 October 2020

चुप सा सत्य


बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

उन ख़ामोशियों में, न जाने कितने थे सवाल!
मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

शायद, वो इक चीख थी, जो कहीं रही दबी!
सिमट कर, शोर के आवरण में!
अन्तः,गहरी सी टीस थी!
पर ये अन्तः करण, तौलता है कौन?
अन्तर्मन, झांकता है कौन?
चुप-चुप ही रहा, खुद से कर सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

वो निष्काम सत्य, बेचैन सा, जूझता ही रहा!
समक्ष असत्य के, वो कब झुका!
पर, दुरूह वो काल था!
सत्य पर पड़ा, असत्य का जाल था!
तोड़ता है, वो जाल कौन?
सत्य को रहा, सदा ही इक मलाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 30 April 2017

अचिन्हित तट

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

अनगिनत लहर संवेदनाओं के उमरते तुम पर,
सूना है फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सुधि लेने तेरा कोई, आता क्यूँ नहीं तेरे तट?
अचिन्हित सा अब तक है क्यूँ तेरा ये निश्छल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

निश्छल, निष्काम, मृदुल, सजल तेरी ये नजर,
विरान फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सजदा करने कोई, फिर क्यूँ न आता तेरे तट?
बिन पूजा के सूना क्यूँ, तेरा मंदिर सा ये निर्मल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

भावुक होगा वो हृदय, जो तैरेगा तेरी लहरों पर,
चिन्हित होगा तब तेरा ये सूना तट!
प्रश्रय लेगी संवेदनाएं, सजदे जब होगे तेरे तट!
रुनझुन कदमों की आहट से, गूजेगा फिर तेरा ये तट।

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

नियंत्रित तुम कर लेना, अपनी भावनाओ के ज्वर,
गीला न हो जाए कहीं तेरा ये तट!
पूजा के थाल लिए, देखो कोई आया है तेरे तट!
सजल नैनों से वो ही, सदा भिगोएगा फिर तेरा ये तट!

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....