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Tuesday 2 April 2019

वक्त के संग

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

ठहरा कहीं न जीवन, शाश्वत है परिवर्तन,
गतिशील वक्त, हो वन में जैसे हिरण,
न छोड़ता कहीं, अपने पाँवों की भी निशानी,
चतुर-चपल, फिर करता है ये चतुराई,
वक्त बड़ा ही निष्ठुर, जाने कब कर जाए छल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

न की थी वक्त ने, कोई हम पे मेहरबानी,
करवटें खुद ही, बदलता रहा हर वक्त,
तन्हाई खुद की, है उसे किसी के संग मिटानी,
सोंच कर यही, रहता वो संग कुछ पल,
फिर मौसमों की तरह, बस वो जाता है बदल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

हैं बड़े ही बेरहम, वक्त के ज़ुल्मों-सितम,
चल दिए तोड़ कर, मन के सारे भरम,
यूँ न कोई किसी से करे, छल-कपट बेईमानी,
ज्यूं कर गया है, वक्त अपनी मनमानी,
बिन धुआँ इक आग यह, इन में न जाएं जल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 17 November 2018

दो प्रस्तावना

दो स्वरूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

कामना के कई रंग देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूंकि, कल्पना से सर्वथा परे,
बिल्कुल अलग-अलग,
दो विपरीत कलाएँ, रचता है ईश्वर!

बसंत ही बसंत
या है पतझड़ ही पतझड़,
हरितिमा अनंत है
या है बंजर ही बंजर,
दो रूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

चुप ही चुप,
या कंठ में स्वर ही स्वर,
है सुर-विहीन,
या है सुर के सातों स्वर,
दो धुन जीवन के, रचता है ईश्वर!

अभिलाषा मन में देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूँकि, चाहत से सर्वथा परे,
कथाएं अलग-अलग,
दो भिन्न प्रस्तावना, रखता है ईश्वर!

चुनने को मार्ग सही, कहता है ईश्वर!

Tuesday 6 November 2018

मेरी दिवाली

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो नन्हा जीवन,
क्यूँ पल रहा है बेसहारा,
अंधेरों से हारा,
फुटपाथ पर फिरता मारा....

सारे प्रश्नों के
अंतहीन घेरो से बाहर निकल,
बस चाहता हूँ सोचना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो वृहत आयाम!
क्यूँ अंधेरों में है समाया,
जीत कर मन,
अनंत नभ ही वो कहलाया....

सारे आकाश के
अँधेरों को अपनी पलकों पर,
बस चाहता हूँ तोलना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

Sunday 14 October 2018

मत कर इतने सवाल

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

ये उम्र है, ढ़लती जाएगी!
हर शै, चेहरों पर रेखाएँ अंकित कर जाएंगी,
छा जाएगा वक्त का मकरजाल!
मत कर इतने सवाल.....!

समय की, है ये मनमानी!
बेरहम समय ये, किस शै की इसने है मानी?
रेखाओं के ये बुन जाएगा जाल!
मत कर इतने सवाल.....!

बदलेगा, ये वक्त भी कभी!
डगर इक नई, अपनी ही चल देगा ये कभी!
वक्त की थमती नही कहीँ चाल!
मत कर इतने सवाल.....!

ले ऐनक, तू बैठा हाथों में!
रंग कई, नित भरता है तू अपनी आँखों में!
उम्र के रंगों का क्या होगा हाल?
मत कर इतने सवाल.....!

झुर्रियाँ, ले आएंगी ये उम्र!
इक राह वही, अन्तिम चुन लाएगी ये उम्र!
क्यूँ पलते मन में इतने मलाल?
मत कर इतने सवाल.....!

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

Sunday 2 September 2018

वही है जीवन

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...

झंकृत शब्दों से मौन को चीर दे,
ठहरे पलों को अशांत सागर का नीर दे,
टूटे मन को शांति का क्षीर दे,
है जीवन वही......

अचम्भित हूं मैं मौन जीवन पे,
कब ठहरा है जीवन मौन की प्राचीर पे,
मृत्यु के पल आते है मौन पे,
है जीवन वही......

मरण दाह है, लौ जीवन की ले,
ज्वलंत पलों से पल जीवन के छीन ले,
यूं जीते जी क्यूँ दाह में जले,
है जीवन वही......

इक गूंज गुंजित है ब्रम्हाण्ड में,
ओम् अहम् वही गुंजित है हर सांस में,
गूंज वही गूंजित कर मौन में,
है जीवन वही......

कोलाहल हो जब ये दीप जले,
हो किलकारी जब भी कोई फूल खिले,
मुखरित मन के संवाद चले,
है जीवन वही......

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...

Tuesday 28 August 2018

कब हो सवेरा

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

मुख मोड़ लिया, जिसने जीवन से,
बस एकाकी जीते हैं जो, युगों-युगों से,
बंधन जोड़ कर उन अंधियारों से,
रिश्ता तोड़ दिया जिसने उजियारों से,
कांतिविहीन हुए बूढ़े बरगद से,
यौवन का श्रृंगार, क्या उनको भी दे जाओगे?

रोज नया दिन लेकर आते हो,
फूलों-कलियों में रंग चटक भर लाते हो,
कोमल पात पर झूम-झूम जाते हो,
विहग के कंठों में गीत बनकर गाते हो,
कहीं लहरों पर मचल जाते हो,
नया उन्माद, क्या मृत मन में भी भर पाओगे?

युगों-युगों से हैं जो एकाकी,
पर्वत-पर्वत भटके हैं बनकर वनवासी,
छाई है जिन पर घनघोर उदासी,
मिलता गर उनको भी थोड़ी सी तरुणाई,
खिलती उनमें कोमल सी अमराई,
यह उपहार, क्या एकाकी मन को दे पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ नई सी किरण!
साध सको तो इक संकल्‍प साध लो,
कभी सिमटते जीवन में खो लेना,
कहीं विरह में तुम संग रो लेना,
कहीं व्यथित ह्रदय में तुम अकुलाना,
वेदना अपार, क्या सदियों तक झेल पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

Saturday 25 August 2018

अधूरा संवाद

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
झूठमूठ ही, चाहे कुछ भी बतियाना,
या मेरी बातों में तुम खो जाना,
मुझको करनी है तुमसे, पूरी मन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

भटका सा था मैं इक बंजारा,
तेरी ही पनघट पर था मैं तो ठहरा,
कुछ छाँव मिली मैं सब हारा,
बड़ी अद्भुद सी थी, उस छैय्यां की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

छाँव घनेरी, थी वो बरगद सी,
इक मंद बयार, वहीं थी आ ठहरी,
करता भी क्या अब मैं बेचारा,
उस बयार में थी, शीतल सी कोई बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

अति लघु जुड़ाव जीवन का,
लधुत्तर फुर्सत के ये चंद लम्हात,
चुप चुप सी हो तुम क्यूं बोलो,
कह दो ना तुम, कुछ अनसूनी सी बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
रिक्त कभी ना, ये झूला कर जाना,
इन बाहों का हो ना रिक्त शृंगार,
रिक्त ना रह जाए, आलिंगन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

Monday 6 August 2018

द्वितीय संस्करण

सम्भव होता गर जीवन का द्वितीय संस्करण,
समीक्षा कर लेता जीवन की भूलों का,
फिर जी लेता इक नव-संस्करित जीवन!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

नए सिरे से होता, तब रिश्तों का नवीकरण,
परिमार्जित कर लेता मैं अपनी भाषाएं,
बोली की कड़वाहट का होता शुद्धिकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

संस्कारी प्रवृत्तियों का करता मैं नव-उद्बोधन,
समूल नष्ट कर देता असंस्कारी अवयव,
कर लेता उच्च मान्यताओं का मैं संवर्धन।

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

विसंगतियों से पृथक होता ये जीवन-दर्शन!
कर्मणा-वाचसा न होते विभिन्न परस्पर,
वैचारिक त्रुटियों का कर लेता निराकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

परन्तु, प्रथम और आखिरी है यही संस्करण,
द्वितीय संस्करण इक कोरी सी कल्पना ,
अपनी जिम्मेदारी है यही प्रथम संस्करण!

बस नामुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

Saturday 4 August 2018

वो तारे

गगन के पाश में,
गहराते रात के अंक-पाश में,
अंजाने से किस प्यास में,
एकाकी हैं वो तारे!

गहरे आकाश में,
उन चमकीले तारों के पास में,
शायद मेरी ही आस में,
रहते हैं वो तारे!

अंधेरों से मिल के,
सुबह के उजियारों से बच के,
या शायद एकांत रह के,
खिलते हैं वो तारे!

टिम टिम वो जले,
तिल-तिल फिर जल-जल मरे,
हर पल यूं ही टिमटिमाते,
जलते हैं वो तारे!

क्यूं तन्हा है जीवन?
वृहद आकाश क्यूं है निर्जन?
अनुत्तरित से कई प्रश्न,
करते हैं वो तारे!

ना ही कोई सखा,
ना ही फल जीवन का चखा,
इसी तड़प में शायद,
मरते हैं वो तारे!

जलकर भुक-भुक,
ज्यूं, कुछ कहता हो रुक-रुक,
शायद मेरी ही चाह में,
उगते हैं वो तारे!

Wednesday 18 July 2018

वजह ढूंढ लें

जीने की कुछ तो वजह होगी,
बेवजह ये साँसे न यूं ही चली होंगी,
न सीने में दर्द यूं ही जगा होगा,
ये आँसू न यूं ही आँखों मे भरा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

नैन बेचैन रहते हैं क्यूं रातभर,
दूर अपना कोई उनसे तो रहा होगा,
नीर नैनों से न यूं ही बहे होंगे,
नैनों से उस ने कुछ तो कहा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
चलो वजह वही हम ढूंढ लें.....

न यूं ही सजी होंगी ये वादियां,
ये पर्वत यूं ही एकाकी न हुआ होगा,
बर्फ शीष पर यूं ही न जमे होंगे,
धार बनकर नदी यूं ही न बही होगी,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

विहँसती हैं धूप में क्यूं पत्तियां,
पत्तियों का बदन भी तो जला होगा,
खिलते हैं हँसकर ये फूल क्यूं,
ये कांटा फूलों को भी तो चुभा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
चलो वजह वही हम ढूंढ लें.....

जीने की कुछ तो वजह होगी,
बेवजह न उभर आया होगा रास्ता,
कुछ कदम कोई तो चला होगा,
अकेला सारी उम्र न कोई रहा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

Monday 16 July 2018

समय की आगोश में

समय बह चला था और मैं वहीं खड़ा था ......

मैं न था समय की आगोश में,
न फिक्र, न वचन और न ही कोई बंधन,
खुद की अपनी ही इक दुनियां,
बाधा विमुक्त स्वतंत्र उड़ने की चाह,
लक्ष्य से अंजान इक दिशाविहीन उड़ान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

सब कुछ तो था मेरे सम्मुख,
समय की लहर और बहती हुई पतवार,
न था पर किसी पर ऐतबार,
फिर भी सब कुछ पा लेने की चाहत,
स्व की तलाश में सर्वस्व ही छूटा था पीछे,
वो किनारा मै पा न सका था?

यूं ही पड़ी संस्कारों की गठरी,
बाहर रख दी हों ज्यूं चीजें फिजूल की,
रिवाजों से अलग नया रिवाज,
आप से तुम तक का बेशर्म सफर,
सम्मान को ठेस मारता हुआ अभिमान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

अब ढूंढ़ता हूं मैं वो ही समय,
जिसकी आगोश में मैं भी ना रुका था,
विपरीत मैं जिसके चला था,
जिसकी धार में सब बह चुका था,
आचार, विचार, संस्कार अब कहां था?
हाथों से अब समय बह चला था!

और मैं मूकद्रष्टा सा, बस वहीं खड़ा था ......

Friday 22 June 2018

कोरा अनुबंध

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

Sunday 17 June 2018

हम, हम में थे..

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
हम! तुझ में ही खोए हम थे,
जुदा न खुद से हम थे,
तुम संग थे,
तेरे पग की आहट मे थे,
कुछ राहत मे थे,
कुछ संशय में हम थे!
कहीं तुम और किसी के तो न थे?

तुम कहते थे....
हम! बस सुनते ही रहते थे,
तुम दो पल थे,
पर वो पल क्या कम थे?
गूंजते वो पल थे,
संग धड़कन के बजते थे,
आँखों में सजते थे,
उस पल, तुम बस मेरे ही होते थे!

वो दो पग थे.....
पर कहीं भी रुके न हम थे,
उस पथ ही थे,
जिस पथ तुम संग थे,
उस पल में हारे थे,
संग तुम्हारे थे,
वो नदी के किनारे थे,
बहती उस धार में तेरे ही इशारे थे!

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
कभी, जुदा न खुद से हम थे.....

Sunday 10 June 2018

कितने और बसंत

बांकी है हिस्से में, अभी कितने और बसंत....

हो जब तक इस धरा पर तुम,
यौवन है, बदली सी है, सावन है अनन्त,
ना ही मेरा होना है अन्त,
आएंगे हिस्से में मेरे,
अनगिनत कितने ही और बसंत......

शीतल, निर्झर सरिता सी तुम,
धार है, प्रवाह है तुझमें जीवन पर्यन्त,
है तुझसे ही सारे स्पन्दन,
हिस्से में अब हैं मेरे,
कलकल बहते कितने ही बसंत.....

यूं जाते हो मुझको छूकर तुम,
ज्यूं बरखा हो, या बहती सी कोई पवन,
छू जाती हो जैसे किरण,
सासों के घेरे में मेरे,
एहसासों के कितने ही हैं बसंत.....

हर मौसम ही, खिलते हो तुम,
पतझड़ में, लेकर आते हो नवजीवन,
जगाते हो निष्प्राण मन,
संग सदा तुम मेरे,
हरपल देखे है कितने ही बसंत....

निश्छल स्निग्ध आकाश तुम,
जब तक है, तेरी इन सायों का ये घन,
कभी न होगा मेरा अन्त,
उतरेगे मन में मेरे,
सदाबहार होते कितने ही बसंत....

बांकी है हिस्से में मेरे, अभी कितने और बसंत....

Tuesday 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Thursday 24 May 2018

कहीं यूं ही

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सावन ले आ, जा पर्वत से टकरा,
या बन जा घटा, नभ पर लहरा,
तेरे चलने में ही तेरा यौवन है,
यह यौवन तेरा कितना मनभावन है,
निष्प्राणों में प्राण तू फूंक यूं ही......

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सागर से मिल, जा तू बूंदे भर ला,
प्यासी है ये नदियां, दो घूंट पिला,
सूखे झरनों को नव यौवन दे,
तप्त शिलाओं को सिक्त बूंदों से सहला,
बहता चल तू मौजों के साथ यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या घटा घनघोर बन, या चित बहला,
कलियों से मिल, ये फूल खिला,
खेतों की इन गलियो से मिल,
सूखे फसलों को ये रस यौवन के पिला,
जीवन में जान जरा तू फूंक यूं ही.....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या बाहों में सिमट, आ मन को सहला,
सजनी की आँखों में ख्वाब जगा,
आँचल बन मन पर लहरा,
निराशा हर, आशा के कोई फूल खिला,
आँखों में सपने तू देता जा यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

Wednesday 23 May 2018

झ॔झावात

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

जीवन के ये झंझावात,
पल पल आँहों में, घिसते ये हालात,
अन्तर्मन में पिसती कोई बात,
धुन से भटकते ये साज.....
ऐसे में मन को कोई छू जाए,
दर्द दिलों के कम जाए,
धुन ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

कोई अपनों से हो नाराज,
मीठे से रिश्तों में भर जाए खटास,
नदारद हो मिश्री की मिठास,
ये मन रहता हो उदास.....
ऐसे में गीत मधुर कोई गाए,
स्वर लहरी सी लहराए,
सुर ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

सुरविहीन से ये अंधड़,
दिलों के अन्दर उतार गए ये खंजर,
सुख चैन कहाँ अब पल भर,
भावविहीन ये झंझावात....
ऐसे में स्पर्श कोई कर जाए,
भाव-प्रवण कर जाए,
गीत ऐसा ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

चिंतित करते ये लम्हात,
ये जीवन के भयंकर से झंझावात,
ना ही सर पर हो कोई हाथ,
बेकाबू से हों हालात......
ऐसे में हाथ कोई रख जाए,
रौशन राह दिखा जाए,
राग कोई ऐसी ही, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

Sunday 20 May 2018

स्वार्थ

शायद, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

तेरी मोहक सी मुस्काहट में,
अपने चाहत की आहट सुनता हूं
तेरी अलसाए पलकों में,
सलोने जीवन के सपने बुनता हूं,
उलझता हूं गेसूओं में तेरे,
बाहों में जब भी तेरे होता हूं,
जी लेता हूं मैं तुझ संग,
यूं सपने जीवन के संजोता हूं,
हाँ तब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

भीगे तेरे आँसू में
दामन भी मेरे,
छलनी मेरा हृदय भी
हुआ दर्द से तेरे,
डोर जीवन की मेरी
है साँसों में तेरे,
मेरी डोलती नैया
है हांथों में तेरे,
यही तो हैं स्वार्थ....
मै वश में जिनके रहता हूं...
फिर, कैसे हुआ मैं निःस्वार्थ...
हाँ इनमें भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी, मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

कोई छोटी सी बात भी मेरी,
न बनती है बिन तेरे,
है तुझ पे ही पूर्णतः निर्भर,
मेरे जीवन के फेरे,
संतति को मेरी...
शरण मिली कोख में ही तेरे,
जीवन की इन राहों पर
इक पग भी
न चल पाया मैं बिन तेरे,
फिर, कहां हुआ मैं निःस्वार्थ,
हाँ अब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

सब कहते हैं इसको ही प्यार....
पर, इसमें मैं अपने
स्वार्थ का संसार देखता हूं ....
बिल्कुल, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

(स्वार्थवश...., पत्नी को सप्रेम समर्पित)

Thursday 17 May 2018

कोलाहल

वो चुप था कितना, जीवन की इस कोलाहल में!

सागर कितने ही, उसकी आँचल में,
बादल कितने ही, उस कंटक से जंगल में,
हैं बूंदे कितनी ही, उस काले बादल में,
फिर क्यूं ये विचलन, ये संशय पल-पल में!

वो चुप था कितना, शोर भरे इस कोलाहल में!

खामोश रहा वो, सागर की तट पर,
चुप्पी तोड़ती, उन लहरों की दस्तक पर,
हाहाकार मचाती, उनकी आहट पर,
सहज-सौम्य, सागर की अकुलाहट पर!

वो चुप था कितना, लहरों की इस कोलाहल में!

सुलगते जंगल की, इस दावानल में,
कलकल बहते, दरिया की इस हलचल में,
दहकते आग सी, इस मरुस्थल में,
पल-पल पग-पग डसती, इस दलदल में!

वो चुप था कितना, कितने ही ऐसे कोलाहल में!

था इक कण मात्र, वो इस सॄष्टि में,
ये कोलाहल कुछ ना थे उसकी दृष्टि में,
भीगा आपादमस्तक, वो अतिवृष्टि में,
चुपचाप रहा वो, इस जीवन की संपुष्टि में!

वो चुप था कितना, सृष्टि की इस कोलाहल में!

Sunday 13 May 2018

ले गया चैन कोई

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

वो जो कहते थे, बस हम है तुम्हारे,
सिर्फ हम थे कभी, जिनकी आँखों के तारे,
करार वो ही मन के, ले गए हैं सारे,
इन बेकरारियों में जीवन, कोई कैसे गुजारे?

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

चीज अनमोल ये, मैं कहाँ से पाऊँ,
चैन! वस्तु नहीं कोई, जो मैं खरीद लाऊँ,
पर जिद्दी ये मन मेरा, इसे कैसे बताऊँ,
छीना है जिसने करार, मन उसे ही पुकारे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

कोई पुतला नहीं, इक जीव हूं संजीदा,
उमरती हैं भावनाएँ, न ही इसे हमने खरीदा,
वश भावनाओं पर, कहाँ है किसी का?
इन्हीं भावनाओं के हाथो, ये मन बिका रे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

सोचा था, न जाऊंगा मैं फिर उस तरफ,
कदमताल करता है मन, हरदम उसी तरफ,
कदमों को रोककर, समझाता हूं मैं,
मगर वश में मेरा मन, अब रहा ही कहाँ रे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....