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Sunday, 19 March 2023

इन दिनों

उन दिनों, हम गुम थे कहीं...
चुप थी राहें!
गुम कहीं, उन कोहरों में किरण,
मूक, मन का हिरण,
पुकारता किसे!

बे-आवाज, पसरी वो राहें...
संग थी मेरे,
चल पड़ा, चुनकर वो एक पंथ,
लिए सपनों का ग्रंथ,
अपनाता किसे!

बह चला, वक्त का ढ़लान...
वो इक नदी,
बहा ले चली, कितनी ही, सदी,
बह चले, वो किनारे,
संवारता किसे!

दिवस हुआ, अवसान सा...
रंग, सांझ सा,
डूबते, क्षितिज के वे ही छोर,
बुलाए अपनी ओर,
ठुकराएं कैसे!

इन दिनों, हम चुप से यहां...
वे क्षण कहां!
पर बिखरे हैं, फिर वो ही कोहरे,
गगन पे, वो ही घन,
निहारता जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)