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Sunday 28 July 2019

काश के वन

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

ललचाए मन, अनचाहे से ये काश के वन,
विस्तृत घने, अपरिमित काश के वन,
पथ भटकाए, मन भरमाए, ये दूर कहीं ले जाए!
"काश! ऐसा होता" मुझसे ही कहलाए,
कैसा है मन, क्यूं उग आते है, काश के वन!

कब होता है सब वैसा, चाहे जैसा ये मन,
वश में नही होते, ये आकाश, ये घन,
मुड़ जाए कहीं, उड़ जाए कहीं, पड़ जाए कहीं!
सोचें कितना कुछ, हो जाता है कुछ,
उग आते हैं मन में, फिर ये, काश के वन!

बदली है कहाँ, लकीरें इन हाथों की यहाँ,
अपनी ही साँसें, कोई गिनता है कहाँ,
विधि का लेखा, है किसने देखा, किसने जाना!
साँसों की लय का, अपना ही ताना,
संशय में, उग आते हैं बस, काश के वन!

काश! दिग्भ्रमित न करते, ये काश के वन,
दिग्दर्शक बन उगते, ये काश के वन,
होता फिर बिल्कुल वैसा, कहता जैसा ये मन!
न पछताते, न हाथों को मलते हम,
न उगते, न ही भटकाते, ये काश के वन!

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 13 April 2019

पदचिन्ह

पदचिन्ह हैं ये किसके....

क्या गाती विहाग, नींद से जागी प्रभात?
या क्षितिज पे प्रेम का, छलक उठा अनुराग?
या प्रीत अनूठा, लिख रहा प्रभात!

पदचिन्ह हैं ये किसके....

ये निशान किस के, अंकित हैं लहर पे!
क्या आई है प्रभा-किरण, करती नृत्य-कलाएँ?
या आया है कोई, रंगों में छुपके?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

स्थिर-चित्त सागर, विचलित हो रहा क्यूँ?
हर क्षण बदल रही, क्यूँ ये अपनी भंगिमाएं?
हलचल सी मची, क्यूँ निष्प्राणों में?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

चुपके से वो कौन, आया है क्षितिज पे?
या किसी अज्ञात के, स्वागत की है ये तैयारी!
क्यूँ आ छलके है, रंग कई सतरंगे?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

टूट चली है मेरी, धैर्य की सब सीमाएँ!
दिग्भ्रमित हूँ अब मैं, कोई मुझको समझाए!
तनिक अधीर, हो रहा क्यूँ सागर?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा।