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Sunday, 1 January 2023

नववर्ष २०२३

आया और इक नव-वर्ष,
और एक उत्कर्ष, 
चल कर लें स्वागत, सहर्ष!

रोका कितनों नें, 
डाले कितनों ने, रोड़े राहों में,
आए कितने ही दोराहे,
मुड़ आए, रस्ते सारे,
ले आए नव-वर्ष!

रुकते कब पग,
रोके, रुकते ना जन कलरव,
स्वागत का यह उत्सव,
स्मृतियों के, ये पल,
ले आए नव-वर्ष!

उर में, उल्लास,
मन में, इक मीठी सी प्यास,
होठों पर, इक नवहास,
चहुंओर नवविलास,
ले आए नव-वर्ष!

आया और इक नव-वर्ष,
और एक उत्कर्ष, 
चल कर लें स्वागत, सहर्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 15 June 2019

कर्म-साक्षी

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 13 April 2019

पदचिन्ह

पदचिन्ह हैं ये किसके....

क्या गाती विहाग, नींद से जागी प्रभात?
या क्षितिज पे प्रेम का, छलक उठा अनुराग?
या प्रीत अनूठा, लिख रहा प्रभात!

पदचिन्ह हैं ये किसके....

ये निशान किस के, अंकित हैं लहर पे!
क्या आई है प्रभा-किरण, करती नृत्य-कलाएँ?
या आया है कोई, रंगों में छुपके?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

स्थिर-चित्त सागर, विचलित हो रहा क्यूँ?
हर क्षण बदल रही, क्यूँ ये अपनी भंगिमाएं?
हलचल सी मची, क्यूँ निष्प्राणों में?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

चुपके से वो कौन, आया है क्षितिज पे?
या किसी अज्ञात के, स्वागत की है ये तैयारी!
क्यूँ आ छलके है, रंग कई सतरंगे?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

टूट चली है मेरी, धैर्य की सब सीमाएँ!
दिग्भ्रमित हूँ अब मैं, कोई मुझको समझाए!
तनिक अधीर, हो रहा क्यूँ सागर?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा।

Thursday, 14 January 2016

स्वागत प्रभात का

स्याह रातों की खामोशी को स्वर दे गया वो फिर,
कोलाहल मची सृष्टि में, उसके स्वागत को फिर।

खामोश सृष्टि लगी विहसने सुन जन-जन के गान,
पंछियों ने कलरव कर छे़ड़ दिए है सप्ससुरी तान।

वो कौन रात्रि मे कुंजपत्तियों को बूंदों से धो गया,
स्वागत की तैयारी मे वसुधा को नव रूप दे गया।

पूर्ण सृष्टि का श्रृंगार करने सूर्य क्षितिज पर आया,
स्वर्निम आभा से अपनी मनभावन रंग बिखेर गया।

नभ के चेहरे मले गुलाल, गिरि मस्तक भी मधुमायी,
सागर जल हुए स्वर्निम, प्रकृति नव वधु सी मुस्काई।