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Wednesday 7 December 2022

पीपल सा पल

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

मन्द झौंके उनके, बड़े शीतल,
पत्तियों की, इक सरसराहट,
जैसे, बज उठे हों पायल,
मृदु सी छुअन उसकी, करे चंचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

यूं भटका सा, इक पथिक मैं,
आकुल, हद से अधिक मैं,
जा ठहरूं, वहीं हर पल,
घनी सी छांव उसकी, करे घायल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

वो घोल दे, हवाओं में संगीत,
छेड़ जाए, सुरमई हर गीत,
तान वो ही, करे पागल,
हैं वो पल समेटे, कितने हलचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 9 October 2021

पथिक

पथिक इस राह के, हम, दूर तक जाएंगे,
वो पंछी चाह के, हमें भटकाएंगे,
विचलन कई, लुभाने आएंगे!
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
उलझे बड़े, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक, इस राह के हम‌....

या, धुंधलाने लगे हों, पथ के सितारे,
या फिर पुकारें, क्षणिक गगन के, छांव सारे, 
और, भरमाते रहे, पथ के वो तारे‌...
लक्ष्य से, विचलित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
भ्रम से भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

बाधाएं बड़ी हों, पथ में शिलाएं खड़ी हों,
दुर्गम घाटियों की, बाहें बड़ी हों,
विपरीत, ये दिशाएं पड़ी हों,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
कंटक भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

या, हों प्रतिकूल, समय के ये दोधारे,
या बिछड़ने लगे हों, पथ के वो संगी सहारे,
और न हो, सांझ के कोई सहारे...
वक्त से, प्रभावित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
ज़िंदगी के, पड़ाव सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 31 July 2018

तन्हाईयाँ

हँस ले जी भर के,
आज मुझपे ऐ तन्हाईयाँ,
सजेंगी महफिलें,
तब आऊंगा बुलाने मैं तुझे,
जल जाएगा तू भी,
देखकर मेरी कहकशाँ....

चलो ये माना कि,
तन्हा है आज हम यहाँ,
न है वो काफिले,
न ही है सितारों का कारवाँ,
पर ये न समझो,
कि गमगीन हैं हम यहाँ....

गूंज हूं मैं अकेला,
संग गूंजेंगी ये विरानियाँ,
दो पग भी चले,
बन ही जाएंगी पगडंडियाँ,
पथिक भी होंगे,
यूं ही बजेंगी शहनाईयाँ....

झेंप जाओगे फिर,
देख मुझको ऐ तन्हाईयाँ,
आ मिल ले गले,
है बेकार की ये रुशवाईयाँ,
क्यूं शिकवे पले,
क्यूं ये शिकायत साथिया....

Monday 27 March 2017

हिस्से की जिंदगी

बहुत ही करीब से गुजर रही थी जिंदगी,
कितना कोलाहल था उस पल में,
मगर बेखबर हर कोलाहल से था वो पथिक,
धुन बस एक ही ! अपने मंजिल तक पहुचने की!

मुड़-मुड़कर उसे देखती रही थी जिन्दगी,
पर उसे साँस लेने तक की फुर्सत नहीं,
अनथक कदम अग्रसर थे बस उस मंजिल की ओर,
पल-पल जिंदगी से दूर होते गए उसके कदम।

निराश हतप्रभ अब हो चली थी जिंदगी,
कचनार हो गई हो जैसे सुगंधहीन,
गुलमोहर की कली ज्युँ सूखकर हुई हो कांतिहीन,
प्रगति के पथ पर जिन्दगी से दूर था वो पथिक।

मंजिलों पर वो अब तलाशता था जिंदगी,
हाथ आई सूखी हुई सी कुछ कली,
रंगहीन गंधहीन अध-खिली सहमी बिखरी डरी सी,
छलक पड़े थे नैनों में दो बूँद नीर की भटकी हुई।

बहुत ही करीब से गुजर चुकी थी उसके हिस्से की जिंदगी।

Wednesday 13 April 2016

तू पथ मैं पथिक

पथ घुमावदार,
पथिक इन राहों का मैं अंजाना,
असंख्य मोड़ इन राहों पर,
पा लेता मैं मंजिल जीवन की,
गर छाँव तुम अपनी आँचल का मुझको देते।

पथ रसदार,
जीवन के इस रस से मैं अंजाना,
अनंत मधुरस इस पथ पर,
पी जाता मैं अंजुरी भर भरकर,
गर प्याला तुम अपनी नैनों का मुझको देतेे।

पथ पथरीला,
चुभते इन काटों से मैं अंजाना,
कंकड़ हजार इस पथ पर,
चल लेता मैं नुकीले पत्थर पर,
गर दामन तुम अपना मखमल सा मुझको देते।

पथ एकाकी,
एकाकीपन इस भीड़ का न जाना,
खोया भीड़ मे इस पथ पर,
ढ़ूंढ़ लेता मैं अपने आप को पथ पर,
गर बसंत तुम अपने सासों का मुझको देते।

पथ लम्बा भ्रामक,
जीवन के इस भ्रम से मैं अंजाना,
लम्बे पथ पर छोटा सा जीवन,
जी लेता मै जीवन के पल जी भरकर,
गर मुस्कान तुम अपने जीवन का मुझको देते।

Tuesday 26 January 2016

मौसम सा एहसास

धूप की घनी छाँव तुम,
शीतल चाँदनी सम तुम प्रखर,
सुख का एहसास तुम,
वृक्ष की लताओं सी बिखरी जुल्फें,
नैन पनघट मरुद्यान सम,
ठहर जाऊँ मैं तनिक विश्राम कर लूँ।

ठंढ की गर्म धूप तुम,
प्रात: किरण सम तुम उज्जवल,
नर्म मखमली ओस तुम,
हलकी घटाओं सी बलखाती चाल,
रूप सुलगती आग सम,
ठहर जाऊँ मैं तनिक आराम कर लूँ।

बारिश की बूँद तुम,
मधु कण मधु सम तुम मधुर,
शुष्क हृदय की चाह तुम,
बूँदों से भरी बादलों सा भीगा चेहरा,
ओष्ठ लरजते बादलों सम,
ठहर जाऊँ मै तनिक संग तेरे भीग लूं ।

Sunday 24 January 2016

नैनों की पनघट

नैनों की तेरे पनघट पर,
मधु हाला प्यासा पथिक पा लेता,  
प्यास बुझाने जीवन भर की,
सुधि नैन पनघट की फिर फिर लेता।

नैनों की इस पनघट में,
पथिक देखता आलोक प्रखर सा,
दो घूँट हाला की पाने को,
सर्वस्व जीवन घट न्योछावर कर देता।

नैनों की इस पनघट तट पर,
व्यथित हृदय पीर पथिक का रमता,
विरह की चिर नीर बहाकर,
पनघट तट अश्रुमय जलमग्न कर जाता।

नैनों की इस मृदुहाला में,
कण कण पनघट का डूब जाता,
अनमिट प्यास पथिक की पर,
नैन पनघट ही परित्राण जीवन का पाता।