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Thursday, 5 October 2017

शरद हंसिनी

नील नभ पर वियावान में,
है भटक रही.....
क्यूँ एकाकिनी सी वो शरद हंसिनी?

व्योम के वियावान में,
स्वप्नसुंदरी सी शरद हंसिनी,
संसृति के कण-कण में,
दे रही इक मृदु स्पंदन,
हैं चुप से ये हृदय,
साँसों में संसृति के स्तब्ध समीरण,
फिर क्युँ है वो निःस्तब्ध सी, ये कैसा है एकाकीपन!

यह जानता हूँ मैं...
क्षणिक तुम्हारा है यह स्वप्न स्नेह,
बिसारोगे फिर तुम मुझे,
भूल जाओगे तुम निभाना नेह,
टिमटिमाते से रह जाएंगे,
नभ पर बस ये असंख्य तारे,
एकाकी से गगन झांकते रह जाएंगे हम बेचारे!

व्योम के वियावान में,
शायद इसीलिए...!
भटक रही एकाकी सी वो शरद हंसिनी!

Monday, 22 February 2016

निःस्तब्ध रात्रि वेला

नि:स्तब्ध रात्रि 
अन्ध तिमिर अलबेला,
चाँदनी सौं नभ
रंजित सुसमित यह वेला,
विकल प्राण दो 
मिलने को आतुर ।

पूरित पूर्णिमा
मुखरित सी छवि,
बिखरी नर्म सी चाँदनी,
निखरी निखरी,
मलिन मुख काँति।

लहरों के घर,
 जा रही सर्द सी रौशनी,
इन लमहों में,
 छू रही हैं सर्द सी हवायें
तन्हा सा मन,
तन्हा लग रहे अब अपने साये
याद कोई तब आए.....