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Monday 14 September 2020

चुन लूँ कौन सी यादें

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बुनती गई मेरा ही मन, उलझा गई मुझको,
कोई छवि, करती गई विस्मित,
चुप-चुप अपलक गुजारे, पल असीमित,
गूढ़ कितनी, है उसकी बातें!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बहाकर ले चला, समय का विस्तार मुझको,
यूँ ही बह चला, पल अपरिमित,
बिखेरकर यादें कई, हुआ वो अपरिचित,
कल, पल ना वो बिसरा दे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

ऐ समय, चल तू संग-संग, थाम कर मुझको,
तू कर दे यादें, इस मन पे अंकित,
दिखा फिर वो छवि, तू कर दे अचंभित,
यूँ ना बदल, तू अपने इरादे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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तस्वीर में, मेरी पुत्री ... कुछ पलों को चुनती हुई

Tuesday 14 July 2020

स्वप्न हरा भरा

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

अर्ध-मुकम्मिल से, कुछ क्षण,
थोड़ा सा,
आशंकित, ये मन,
पल-पल,
बढ़ता,
इक, मौन उधर,
इक, कोई सहमा सा, कौन उधर?
कितनी ही शंकाएँ,
गढ़ता,
इक व्याकुल मन,
आशंकाओं से, डरा-डरा,
वो क्षण,
भावों से, भरा-भरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

शब्द-विरक्त, धुंधलाता क्षण,
मौन-मौन,
मुस्काता, वो मन,
भाव-विरल,
खोता,
इक, हृदय इधर,
कोई थामे बैठा, इक हृदय उधर!
गुम-सुम, चुप-चुप,
निःस्तब्ध,
निःशब्द और मुखर,
उत्कंठाओं से, भरा-भरा,
हर कण,
गुंजित है, जरा-जरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 2 August 2019

निःस्तब्ध रात

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

निरुत्तर था, उसके हर सवाल पर मैं,
कह भी, कुछ न सका, उसके हाल पर मैं!
निःस्तब्ध, कर गई थी वो रात!

डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर,
तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर!
रात को, भुला दी थी किसी ने!

वो ही जख्म अब, नासूर सा था बना,
दिन के उजाले से ही, मिले थे जख्म काले!
निरंतर, सिसकती रही थी रात!

दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,
निर्जन तिमिर उस राह में, ना  कोई रहवर!
पीड़ में ही, घुटती रही थी रात!

उफक पर, चाँद आया था उतर कर,
बस कुछ पल, वो तारे भी बने थे सहचर!
लेकिन, अधूरी सी थी वो साथ!

गुम हुए थे तारे, रात के सारे सहारे,
निशाचर सोने चले थे, कुछ पल शोर कर!
अकेली ही, जगती रही वो रात!

क्षितिज पर, भोर ने दी थी दस्तक,
उठकर नींद से, मै भी जागा था तब तक!
आप बीती, सुना गई थी रात!

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 2 July 2019

निःस्तब्धता

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,
डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,
जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,
निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे,
शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे,
उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त,
प्यास जगी थी, या साँस थमी थी कोई,
विलग हो पर्वत से, हुए वो स्खलित,
टूटी थी उनकी, वर्षो की तन्द्रा,
भग्न हुए थे तन, थक कर चूर-चूर था मन,
अब बस, हर ओर अवसाद भरा था,
मन में बाक़ी, अब भी, इक विषाद रहा था,
पर्वत ही थे हम, सजते थे जब तक,
तल्लीन थे, तपस्वी थे तब तक,
टूटा ही क्यूँ तप, बस इक शोर हुआ था जब?
अन्तर्मन, इक विरोध जगा था जब,
सह जाना था पीड़, न होना था इतना अधीर!
सह पाऊँ मैं कैसे, टूटे पर्वत का पीड़!

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 22 February 2016

निःस्तब्ध रात्रि वेला

नि:स्तब्ध रात्रि 
अन्ध तिमिर अलबेला,
चाँदनी सौं नभ
रंजित सुसमित यह वेला,
विकल प्राण दो 
मिलने को आतुर ।

पूरित पूर्णिमा
मुखरित सी छवि,
बिखरी नर्म सी चाँदनी,
निखरी निखरी,
मलिन मुख काँति।

लहरों के घर,
 जा रही सर्द सी रौशनी,
इन लमहों में,
 छू रही हैं सर्द सी हवायें
तन्हा सा मन,
तन्हा लग रहे अब अपने साये
याद कोई तब आए.....