प्रजातंत्र के हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!
बस, कुर्सी दे दो उनको,
चूर नशे में, फिर रहने दो उनको,
मिटने दो, जन-उम्मीदों को!
प्रजातंत्र है, प्रजा खुद सुलझाएंगी,
समस्याएँ, जब बढ़ जाएंगी,
काँटों में, उलझ जाएंगी,
हो विवश, सत्ता-लोलुपता वश,
बुद्धि हीन हमें समझ,
हाथ जोड़, वो फिर से आएंगे,
हलके से, मुस्काएंगे,
देश राग गाएंगे,
वादों कसमों को दोहराएंगे,
इक आम जन, हैं हम,
सजा भोगते, मजबूर प्रजागण हैं हम,
हर हाल में, बस दीन-जन हैं हम,
समस्याएँ, जब बढ़ जाएंगी,
काँटों में, उलझ जाएंगी,
हो विवश, सत्ता-लोलुपता वश,
बुद्धि हीन हमें समझ,
हाथ जोड़, वो फिर से आएंगे,
हलके से, मुस्काएंगे,
देश राग गाएंगे,
वादों कसमों को दोहराएंगे,
इक आम जन, हैं हम,
सजा भोगते, मजबूर प्रजागण हैं हम,
हर हाल में, बस दीन-जन हैं हम,
राजा, हम फिर चुन लेंगे,
हमें कहाँ, ना कहने का है अवसर है,
मजबूरी है, ये प्रजातंत्र है,
हर शाख पर, फलती है सुख सत्ता,
गंदी सत्ता-लोलुपंता!
वोट, हम फिर दे ही आएंगे,
खर्च भी ! वहन हम ही कर जाएंगे!
ना भी, ना कह पाएंगे,
कौन सोचता, क्या हो प्रजा का अधिकार?
ना कहने का, बस उनका है अधिकार!
हमें कहाँ, ना कहने का है अवसर है,
मजबूरी है, ये प्रजातंत्र है,
हर शाख पर, फलती है सुख सत्ता,
गंदी सत्ता-लोलुपंता!
वोट, हम फिर दे ही आएंगे,
खर्च भी ! वहन हम ही कर जाएंगे!
ना भी, ना कह पाएंगे,
कौन सोचता, क्या हो प्रजा का अधिकार?
ना कहने का, बस उनका है अधिकार!
प्रजा, मूक-द्रष्टा, है बस भोगता,
झूठा, खोखला है ये प्रजातंत्र,
प्रजा की, देश की, यहाँ कौन सोचता!
प्रजा की, देश की, यहाँ कौन सोचता!
प्रजातंत्र के ये हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा