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Tuesday, 28 June 2022

ढ़लती शाम


बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

ढ़लते वक्त का आँचल, कौन लेता है थाम!
क्षितिज पर, थककर, कौन हो जाता है मौन!
शायद, घुल जाती हैं, दो नैनों में काजल!
और, क्षितिज पर, घिर आता है बादल,
वक्त सभी, हो जाते हों, बिंदिया के नाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

कदम-ताल करते, कैसे, थम जाते हैं वक्त!
बहते रक्त, नसों में, बरबस, क्यूं होते हैं सुन्न!
शायद, भाल पर, चमक उठते हैं गुलाल!
क्षितिज पर, बिखर जाते हैं सप्त-रंग,
और काजल, कर जाती हों, काम तमाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

महज, संयोग नहीं, यूं, दिवस का ढ़लना!
यूं, पल से पल का मिलना, पल-पल ढ़लना!
शायद, आरंभ तुम हो, अंत तुम ही तक!
नैनों में काजल, बहता हो तुम्हीं तक,
बीत चला, फिर ये लम्हा बस तेरे ही नाम! 

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 27 April 2016

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

Sunday, 3 April 2016

घर

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!

घर मेरा वो जहाँ बाल तुम्हारे गीले हों,
मैं देखता हुँ आईना और तुम देख सँवरती हो,
मांग मे तेरी सिंदूर हो और सिंन्दूरी शाम ढ़लती हो,
बिंदिया की जगमगाहट तेरी माथे पे सजती हो,
घर चाहतों का वही जिसे तुम सजाती हो.......

घर मेरा वही जहाँ सपने सजते हों तेरे,
भोर के गीत बज उठते हो मधुर स्वरों में तेरे,
दिन ढ़ल जाती हो रंगीन साये में आँचल के तेरे,
गुँजती हो किलकारियाँ कई स्वरूपों के मेरे,
घर चाहतों का वही तुम सँवारती हो जिसे .......

घर वही जहाँ संग बाल सफेद हों तेरे,
गुजरते लम्हों में सफेद बाल चमकीले हों तेरे,
वक्त की बारीकियाँ झुर्रियों में उभरे तेरे,
कमजोर आँखें तेरी मदहोशियों से देखे मुझे,
घर चाहतों का ये गर जिन्दगी मे तू साथ हो मेरे......

साथ हर कदम रहे जीवन मे तू मेरे,
डूबता ही रहूँ तेरी फूल सी खुशबुओं के तले,
बंद होने से पहले ये आँखे बस देखती हों तुझे,
साँस जीवन की आखिरी बस यही पे हम संग लें,
घर मेरा वो बने जब एक दूसरे की यादों में हम पलें......

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!