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Tuesday 23 August 2022

किनारों पर


खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

हर बार, छू जाती है, जो, आकर किनारों पर,
और लौट जाती है, न जाने किधर,
फिर उठती है, बनकर इक ढे़ह सी उधर,
देखता हूं, मैं वो लहर,
अनवरत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

करे क्या! हैरान सा, हारा वो बेवश मुसाफ़िर,
बेपरवाह, उन्हीं लहरों का मुंतजिर,
हर पल, छूकर, करती जाती है जो छल,
लिए, उसी की आस,
प्रतीक्षारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

झंकृत, हर ओर दिशा, और वो, मंत्रमुग्ध सा,
कोई संगीत सी, बज उठती लहर,
बज उठते, कई साज, उनकी इशारों पर,
वो चुने, वो ही गीत,
कल्पनारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

उन लहरों से इतर, बे-सबर, जाए तो किधर,
अमिट इक चाह, अमृत की उधर,
और अन्तः, गरल कितने छुपाए सागर,
धारे, वो ही प्यास,
प्रतिमावत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 June 2021

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)