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Sunday 5 September 2021

मझधार मध्य

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

रचे प्रपंच कोई, करे कोई षडयंत्र,
बुलाए पास कोई, पढ़कर मंत्र,
जगाए रात भर, जलाए आँच पर,
हर ले, सुधबुध, रखे बांध कर,
न चाहे, फिर भी, छूटना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ये कैसा अर्पण, कैसा ये समर्पण,
ये कैसी चाहत, ये कैसा सुखन,
दहकती आग में, जले है इक तन,
सदियों, वाट जोहे कैसे विरहन,
न जाने, ये कैसी, साधना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ढ़ूंढ़े मझधार मध्य, इक सुखसार,
बसाए, धार मध्य, कोई संसार,
भिगोए एहसास, धरे इक विश्वास,
रचे गीत, डूबती, हर इक साँस,
न छूटे, मन का ये अंगना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 30 January 2020

लम्हा

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

वो बहती, सी धारा,
डगमगाए, चंचल सी पतवार सा,
आए कभी, वो सामने,
बाँहें, मेरी थामने,
कभी, मुझको झुलाए,
उसी, मझधार में,
बहा ले जाए, कहीं, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

कितना, करीब वो,
है दूर उतना, बड़ा ही, अजीब वो,
न, बाहों में, वो समाए,
न, हाथों में आए,
रहे, यादों में ढ़लकर,
इसी, अवधार में, 
कहाँ ले जाए, वही, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

लम्हे, कल जो भूले,
ना वो फिर मिले, कहीं फिर गले,
कभी, वो अपना बनाए,
कभी, वो भुलाए,
करे, विस्मित ये लम्हे,
इसी, दोधार में, 
भूला है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 1 July 2017

विरह के पल

सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं.....

आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,
निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए, 
खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,
कलाई की चूरी भी मेरी, अब करती शोर नहीं,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

इक खेवनहार वही, मेरी इस टूटी सी नैया का,
तारणहार वही मेरी छोटी सी नैय्या का,
मझधार फसी अब नैय्या, धक-धक से धड़के है जिए,
खेवैय्या अब कोई मेरा नदी के उस ओर नही,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

अधूरे सपनों संग मेरी, बंधी है जीवन की डोर,
अधूरे रंगों से है रंगी, मेरी आँचल की कोर,
कहानी ये अधुरी सी, क्युँ पूरा न कर पाया मेरा प्रिय,
बिखरे से मेरे जीवन का अब कोई ठौर नहीं!
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

सच जानकर भी, ये मन क्युँ जाता है उस ओर?
भरम के धागों से क्युँ बुनता मन की डोर?
पतंगा जल-जलकर क्युँ देता है अपनी प्राण प्रिय?
और कोई सुर मन को क्युँ करता विभोर नहीं?
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

खेवैय्या कोई अपना सा, अब नदी के उस ओर नही!

Tuesday 29 March 2016

एक दिन खो जाऊँगा मैं

प्रीत का सागर हूँ छलक जाऊँगा नीर की तरह,
अंजान गीतों का साज हूँ बजता रहूँगा घुँघरुओं की तरह!

एक दिन,
खो जाऊँगा मैं,
धूंध बनकर,
इन बादलों के संग में!

मेरे शब्द,
जिन्दा रहेंगी फिर भी,
खुशबुओं सी रच,
साँसों के हर तार में!

बातें मेरी,
गुंजेगी शहनाईयों सी,
अंकित होकर,
दिलों की जज्बात में!

सदाएँ मेरी,
हवा का झौंका बन,
बिखर जाएंगी,
विस्मृति की दीवार में!

अक्श मेरी,
दिख जाएगी सामने,
दौड़ कर यादें मेरी,
मिल जाएंगी तुमसे गले!

परछाईं मेरी,
नजरों में समाएगी,
भूलना चाहोगे तुम,
मिल जाऊंगा मैं सुनसान मे!

निशानियाँ मेरी,
दिलों में रह जाएंगी
खो जाऊँगा कहीं,
मैं वक्त की मझधार में!

मुसाफिर हूँ, गुजर जाऊँगा मैं वक्त की तरह,
जाते-जाते दिलों में ठहर जाऊँगा मैं दरख्त की तरह!

Thursday 31 December 2015

जीवन नैया

मझधारों की धारा संग,
जीवन हिचकोले खाए,
इक क्षण उत ओर चले,
इक क्षण इस ओर आए।

तरने मे जीवन नैया सक्षम,
मझधार ही दिखे है अक्षम,
इक क्षण ये झकझोर चले,
इक क्षण कमजोर पड़़ जाए।

जीवन की सीमा अक्षुण्ण,
धार मझधार ही कुछ क्षण,
हर क्षण जीवन वार सहे,
क्षण क्षण मजिल ओर जाए।