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Saturday 27 June 2020

उम्मीद

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

डगमगाया सा, समर्पण,
टूटती निष्ठा,
द्वन्द की भँवर में, डूबे क्षण,
निराधार भय,
गहराती आशंकाओं,
के मध्य!
पनपता, एक विश्वास,
कि तुम हो,
और, लौट आओगे,
जैसे कि ये,
सावन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

क्षीण होती, परछाईंयाँ,
डूबते सूरज,
दूर होते, रौशनी के किनारे,
तुम्हारे जाने,
फिर, लौट न आने,
के मध्य!
छूटता हुआ, भरोसा,
बोझिल मन,
और ढ़लती हुई,
उम्मीद की,
किरण!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

गहराते, रातों के साए,
डूबता मन,
सहमा सा, धड़कता हृदय,
अंजाना डर,
बढ़ती, ना-उम्मीदों,
के मध्य!
छूटता हुआ, विश्वास,
टूटता आस,
और मोम सरीखा,
पिघलता सा,
नयन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 4 May 2019

भीगे बादल

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

ना कोई, शाख था बचा,
चमन में, न कोई बाग था बचा,
टपकती थी बूँदें,
हर तरफ फूल पर, बिखरी थी बूँदें,
भीगे थे सब, पात-पात !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

भीगी हुई, वो टहनियाँ,
कर गई, हाले-दिल सब बयाँ,
तन पर लकीरें,
सुबह की, मोम सी पिघली तस्वीरें,
पिघली सी थी, हर बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

हर पल, टूटा था बादल,
छूटा था जैसे, हाथों से आँचल,
उजाड़ था मन,
दहाड़ कर, रात भर बरसा था घन,
बूँदों संग, छूटा था साथ !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

कोई, घटाओं से कह दे,
मन में दबी, सदाओं से कह दे,
भीगती है क्यूँ,
संग बूँद के, इतना मचलती है क्यूँ?
जज्बातों की, है ये बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा