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Saturday, 4 May 2019

भीगे बादल

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

ना कोई, शाख था बचा,
चमन में, न कोई बाग था बचा,
टपकती थी बूँदें,
हर तरफ फूल पर, बिखरी थी बूँदें,
भीगे थे सब, पात-पात !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

भीगी हुई, वो टहनियाँ,
कर गई, हाले-दिल सब बयाँ,
तन पर लकीरें,
सुबह की, मोम सी पिघली तस्वीरें,
पिघली सी थी, हर बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

हर पल, टूटा था बादल,
छूटा था जैसे, हाथों से आँचल,
उजाड़ था मन,
दहाड़ कर, रात भर बरसा था घन,
बूँदों संग, छूटा था साथ !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

कोई, घटाओं से कह दे,
मन में दबी, सदाओं से कह दे,
भीगती है क्यूँ,
संग बूँद के, इतना मचलती है क्यूँ?
जज्बातों की, है ये बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 8 July 2018

बिसारिए न मन से

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
कभी पुकारिए न मन से!

जब खुश्बू सी कोई आए चमन से,
हो जाए बेचैन सी ये सांसें,
या ठंढी सी बारिश गिरने लगे जब गगन से,
बूंदों में भीग जाएं ये मेरी यादें,
कहने को कुछ, दिन-रैन मन ये तरसे,
मैं पास हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से.........

फीका लगे जब तन पे श्रृंगार सारे,
सूना सा लगे जब ये नजारे,
खुद से ही खुद को, जो कभी तुम हो हारे,
वश में न हो जब मन तुम्हारे,
न आए कोई आवाज इन धड़कनो से,
मैं साथ हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
न हूं दूर, पुकारिए न मन से!

Monday, 25 June 2018

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Tuesday, 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...