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Wednesday 2 December 2020

राजनीति

नीति-अनीति, यथार्थ या भ्रम,
कहते हैं किसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

यूँ तो, गैरों की सुनता हूँ,
अनुभव, चुनता हूँ,
अनुभूतियाँ, शब्दों को देकर,
कविता बुनता हूँ!
पर समझ सका न, इस भ्रम को,
बुनता रहा, इक अधेरबुन,
चुन पाया ना, यथार्थ,
शायद, यहाँ, होता सब परमार्थ!
यूँ इस भ्रम में,
सारे ज्ञान, हुए धूमिल,
पर, मिल पाया ना, इक बिस्मिल!
नीति कहाँ!
और, किधर अनीति!
सर्वथा,
इतर रही राजनीति!

अधिकार, कर्तव्यों पर हैं हावी,
संस्कार, ऐसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 January 2019

अवधारणा

पुनर्सृजित होते हो, कल्पनाओं में तुम ही...

मूर्त रूप हो कोई, या हो महज कल्पना,
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!

पुनर्सृजित हो जाते हो, रचनाओं में तुम ही...

यथार्थ संवेदना हो, या सिर्फ संकल्पना,
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, संवेदनाओं में तुम ही...

अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, विवेचनाओं में तुम ही...
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अवधारणा: चेतना का वो मूल तत्व, जो, वस्तु को उसके अर्थ तथा अर्थ को वस्तु के बिम्ब के साथ जोड़ती है और चेतना को, संवेदनात्मक बिम्बों से अलग, इक स्वतंत्र रूप से पहचानने की संभावना पैदा करती है।

Saturday 16 January 2016

सपनों का भ्रमजाल

सपनों का फैला भ्रम जाल,
देख मानव हो रहा निहाल,
अकल्पित भयंकर यह मकर जाल।

भ्रमजाल मे जकड़ता हर पल,
यथार्थ से दूर ले जाता पल पल,
विस्मित सपनों का प्रलय यह जाल।

सपना तो बस एक छलावा,
भांति भांति के मोहक छद्म दिखाता,
खुली आँखों मे मोह सा छलिया जाल।

सपनों का है अपना कर्म,
जन की आँखो मे बैठ निभाता धर्म,
तू भी कर्म कर अंत काल न रहे मलाल।