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Sunday, 7 January 2018

विप्रलब्धा

वो आएँगे, यह जान कर....
उस सूने मन ने की थी उत्सव की तैयारी,
आष्लेषित थी साँसे उनमें ही,
तकती थी ये आँखें, राहें उनकी ही,
खुद को ही थी वो हारी.....

रंग भरे थे उसने आँचल में,
दो नैन सजे थे, उनके गहरे से काजल में,
गालों पे लाली कुमकुम माथे में,
हाथों में कंगन, पायल सूने पैरों में,
डूबी वो खुद से खुद में....

लेकिन आई थी विपदा भारी,
छूटी थी आशा टूटा था वो मन अभिसारी,
न आ पाए थे वो, वादा करके भी,
सूखी थी वो आँखें, व्यथा सह कर भी,
गम मे डूबी थी वो बेचारी.....

वो विप्रलब्धा, सह गई व्यथा,
कह भी ना सकी, किसी से मन की कथा,
लाचार सी थी वो बेचारी सर्वथा,
मन का अभिसार जाना जिसको सदा,
उसने ही था मन को छला......

ढ़हते खंडहर सा टूटा था मन,
पूजा पश्चात्, जैसे मूरत का हुआ विसर्जन,
तैयारी यूँ ही व्यर्थ गई थी सारी,
दीदार बिना हुआ सारा श्रृंगार अधूरा,
नैनों में अब बूँद था भरा.....
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विप्रलब्धा
1. जिसका प्रिय अपने वचनानुसार मिलन स्थल पर न आया हो ऐसी नायिका
2. प्रिय द्वारा वचन भंग किए जाने पर दुःखी नायिका

विप्रलब्ध की व्युत्पत्ति है = वि+प्र+लभ्‌+क्त । इसका अर्थ है="ठगा गया, चोट पहुँचाया गया" वैसे यह नायिका विशेष के लिये ही प्रयुक्त होता है. वस्तुतः संस्कृत में वि और प्र उपसर्ग एक साथ किसी एक वस्तु को दूसरे से अलग करने के प्रसंग में आते हैं।