Thursday, 24 December 2015

तुम मुझमें हो

देखो ना,
तुम मुझमे हो,
जैसे धड़कनें है हृदय के अंदर,
इन्हें रखने को जीवित,

पर क्या धड़कन को भी है,
किसी हृदय की जरूरत,
धड़कते रहने को,
अपने अस्तित्व को जिन्दा रहने को,

तुम मुझमे हो,
इससे यह कहां साबित होता है कि,
मैं भी तुझमे हूँ,
मेरी जरूरत भी है तुम्हें,
उतनी ही संजीदगी से।

एहसास जिन्दा हों तो,
हमें एक दूसरे की जरूरत है,
दुनियाँ भर की तमाम यादें समाहित हैं,
इन चंद पंक्तियों में...................
तुम भी हो इसमें कही न कही।

Wednesday, 23 December 2015

तुम बनो प्रेरणा जग हेतु

ओ मानव ! 
निराशा तज कर तुम आशावान बनो,
कर्म पथ पर नित प्रगतिशील रहो, 
मलयनील के उत्तुंग शिखरों तक,
तुम पहुचो निर्बाध गति से,
कनक शिखर पर तेरे ,
सूरज भी आएं शीष झुकाने,
कर्म पथ पर चलकर,
तुम बनो प्रेरणा जग हेतु,
असंख्य हाथ उठे तेरी इशारों पर,
असंख्य शीष उठकर तेरी राह निहारे।

जिन्दगी के आईने प्रखर हो इतने,
प्रबुद्ध बनकर चमको तुम इतने,
कि बीते कल के घनघोर अंधेरे,
रौशनी में शरमाकर धुल जाएं इनमें,
आशा का नव संचार हो,
हो फिर नया सवेरा,
हर पल जीवन में हो उजियारा,
निष्कंटक पथ प्रशस्त हों प्रगति के,
कोटि-कोटि दीप जलकर तेरी राह सवाँरे।

मेरी अन्तरआत्मा की आवाज

किसी दोस्त ने टिप्पणी की,

ज़िन्दगी ख़ुद ब ख़ुद एक आइना है जो बयां करती है
बीते हुए कल की जो अंधेरी रात की तरह है
अौर सुबह का इन्तज़ार करती है आने वाले खुबसूरत पल की,

दूसरे बुजूर्ग दोस्त ने कहा.....

न आए लबों पे तो कागज़ पे लिख दिया जाए..
किसी खयाल को मायूस क्यों किया जाए__

मेरी अन्तरआत्मा ने जवाब दिया....

कागजों के लिखे तो मिट जाते हैं,
                  ख्याल वो जो दिलों पे लिखे जाएं,
महसूस हो जो जन्मो-जन्मों तक,
                  एहसासों को अन्दर तक झकझोर जाएं।

जिन्दगी के आईने को हम इतना चमकाएं,
कि बीते कल के अंधेरे इनमें घुल जाएं,
आनेवाला हर पल हो उज्जवल, खुशनुमा,
जिन्दगी की सुबहो-शाम खो इनमें जाए ।

मलयनील के उत्तुंग शिखरों तक तुम पहुचो,
कनक शिखर पर तेरे सूरज भी शीष झुकाएं,
कर्म पथ पर चलकर तुम बनो प्रेरणा जग में,
असंख्य शीष उठकर तुम्हें आशापूर्वक निहारे।

उड़ान: परिधियों के दायरे

परिधियों के दायरे

परिधियों मे संकुचित जीवन आदर्श,
परिधियों मे संकुचित उमरता विचार,
पर मानव व्यक्तित्व भरता कुलांचे,
जीवन्त सोच भरती नित नई उड़ान,
कुछ नया कर जाने को।

चाहूँ तोड़ना परिधियों के दायरे,
कर सकूँ स्थापित एक नया आदर्श,
जहां विचार हों स्वतंत्र उमरने को,
विश्व कल्याण हेतु कुछ करने को,
दिशा नई दिखा जाने को।

दायरे हों इतने विशाल,
पंख हो इनके इतने विस्तृत,
समाहित हो जाएं इनमें जनाकांक्षा,
विचार ले सके खुल के श्वाँस,
मंजिल नई पा जाने को।

धर्म, जाति, कुल, वंश का न रहे कोई भेद,
परिधियों के परे हो मेरी पहचान,
विश्व कल्यान हों जिनका आदर्श,
परिधि खुद हो सके विस्तृत,
समय के साथ बढ़ जाने को।

Tuesday, 22 December 2015

चाहत की मंजिल

मेरी भीगी चाहतों को जैसे, आज मंजिल मिल गई
एक मुश्त खिलखिलाती, सुनहरी धूप मिल गई,
सफल हुई मेरी पूजा, ज़िन्दगी फूलों सी खिल गई।

कोई शिकायत न रही किश्तों मे मिली जिन्दगी से,
जिस निगाहे नूर की कमी थी,
वो निगाहें चश्मेबद्दूर मिल गई,

जी खोलकर की जब उसने मन की बातें,
रौशन लगने लगी हैं अब जीवन की राहें,
उसकी ज़रा सी नूर काफ़ी थी ज़िन्दगी के लिए,
किश्मत मेरी, मुझे विसाले यार मिल गई।

करती रही वो बेपरवाह मनगढंत शिकायतें,
कि तुमने ये क्युँ कहा? तुमने वो क्युँ नही कहा?
तुम्हारी भाषा भटक क्युँ गई? तुमने पूछा क्युँ नही?
बेपरवाह हँसती रही वो इन सवालों में,
जैसे निगाहे यार को भी सुकून मिल गई।

मैने देखा उस बेपरवाही में है जीवन अनंत, 
उन आँखों मे रौशनी है असीम, आशाएँ हैं दिगन्त,
साधना सफल हुई मेरी, जीवन हुआ जैसे पूर्ण
मुझे मेरी जीवन दिगन्त मिल गई।

तुम लौट आओ

प्रिय तुम सुनो मेरी आवाज...
कहीं हवा में है घुली- घुली सी....
तुम गुजरो यादों के गलियारे से..
मेरी परछांईयां तुम्हें वहां भी मिलेंगी...
आज भी शामिल हूँ यादों मे तेरे..
कही न कही मैं संग तुम्हारी राह में.....

मेरी आंखें रोकती है तुम्हारे बढ़ते कदम,
लौट जाती हो तुम, क्या अब भी डरते हो...
उन घनी पलकों की छावों से......
सुनती हो तुम.. मेरी खामोशी..
मेरी पलकों से गिरते शीशे चुभते है तेरे पांव में...
दर्द होता है तुम्हें .... मेरे दर्द से..

अनछूआ सा वो रिश्ता..छूता है तुम्हें...
थाम हाथ तुम्हारा, करता है जिद ..
वजूद मेरा शामिल है तेरी रूह में...
लौट आओगे तुम फ़िर कभी.....
निभाने रिश्ते पुराने...बिताने गुजरे ज़माने....
मेरे ख्वाब रखे हैं मैनें संभाले तुम्हारे सिरहाने..

ढूंढता हूँ हर चेहरे में तेरा अक्श,
करने लगता हूँ प्यार उस शक्श से,
पर मिलती नही मुझे वो राहत,
तुम लौट आओ ,,,तुम लौट आओ.....

रूह की सिसकियाँ

कुछ बूंदों के अकस्मात् बरस जाने से,
सिर्फ लबों को क्षणभर छू जाने से,
बादलों के बिखरकर छा जाने से,
ये रूह सराबोर भींग नहीं जाते।

जमकर बरसना होगा इन बादलों को,
झूमकर बूंदों को करनी होगी बौछार,
छलककर लबों को होना होगा सराबोर,
रूह तब होगी गीली, तब होगी ये शांत।

पिपासा लिए दिगंत तक पहुचते-पहुँचते,
हो जाए न ये रूह एकाकी, होते-होते भोर,
विहंगम शून्य को तकते ये नीलाकाश,
अजनबी सी खड़ी रूह, कही उस ओर।

कुछ स्पंदन के लम्हात् और बढ़ा जाते,
रूहों की पिपासा और अविरल जीने की चाहत,
ताउम्र नही मिल पाती फिर भी,
रूह की सिसकियों को, तनिक भी राहत।

अवरोह वेला गीत कोई तो गाता?

जीवन पथ आरोहित होता जाता,
सासों का प्रवाह प्रबल हो गाता,
धमनियों के रक्त प्रवाह अब थक सा जाता,
जीवन अवरोह मुखर सामने दिखता,
नदी के इस पार साथ कोई तो गाता।

गीत जिनमें हो सुरों का मधुर आरोह,
लय, नव ताल, मादकता और सुकुँ का प्रारोह,
उत्कंठा हो जी लेने की, सुदूर हृदय मे बस जाने की,
किंतु मेरी रागिनी हो पाती नही निर्बंध निर्झर।

अर्धजीवन की इन सिमटते पलों मे,
आरोहित होते संकुचित पलों मे,
अब तीर नदी न कोई मिल पाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता।

इक मैं हूँ खड़ा इस तट पर एकांत,
साथ देती मेरी नदी जल चुप श्रांत,
गीत गाती ये मंद अलसायी हवाएं,
साथ देती नदी के उस पार ईक साया।

जीवन आरोह है अब होने को पूर्ण,
अवरोह की बेला भी दिखती समीप,
मन चाहे अवरोह भी हो उतना ही मुखर,
मधुर हो इसकी तान मादक हों इसके स्वर।

पर यह देख मन मायूस हो जाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता,
न इस तट, न उस तट, मिल कोई न पाता,
काश! नदी के इस पार साथ कोई तो गाता।

जीवन अवरोह मुखर हो जाता.......!
नव गीत कोई यह भी गा पाता........काश!

Sunday, 20 December 2015

वक्त ठहरता ही नही

वक्त ठहरता ही नही, आशाएं बढती ही जाती,
जीवन की इस गतिशीलता, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं मे,
भावनाएं या तो पंख पा लेती हैं,
या फिर कुंठित हो जाती।

व्याकुल आंखे जीवन भर तलाशती रह जाती हैं उन्हे, 
जिनसे भावनाओं को समझने की उम्मीद हों बंधी,
वो मिल जाएं तो ठहराव आता है जीवन में,
कुछ कर गुजरने की तमन्ना जगती हैं

पर दिशाहीन भटकती आकांक्षाओें,
पल पल बढ़ती महत्वाकाक्षाओं के बीच,
वक्त ही कहां है शेष प्रीत की रीत निभाने को,
बचता है फिर कौन जीवन ज्योत जलाने को।

मुझे वो चेहरा पुनः मिल गया,
मन की आकांक्षाओं ने फिर ऊँची उड़ान भरी,
पर उसकी आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाए,
मेरी संवेदनाओं से कही अधिक ऊँची निकली

भावनाएं हुई हैं पुनः कुंठित,
चेतनाएँ हो चुकी हैं शून्य मतिहीन,
जीवन लगने लगी है दिशाहीन,
क्युंकि वक्त ही नही उसके पास भी ।

इन्सानी उम्र की अपनी है सीमा,
वक्त के लम्हे बचे हैं बस गिने चुने,
आशाओं के तो हैं पर लगे हुए,
पर वक्त ठहरता ही नही, बस हम गुजर जाते है
अधूरी अपूरित इक्षाओं के साथ.........

मैं रहूंगा जीवित!

मै पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा,
अकाट्य सत्य है कि एक दिन मिट जाऊंगा,
पृथ्वी पर जन्मे,असंख्य लोगों की तरह, 
समाहित कर दिया जाऊंगा दावानल में,
प्रवाहित कर दी जाएंगी मेरी अस्थियां भी,
गंगाजल फिर या किसी नदी तालाब मे,
मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ भी।

मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे,
एक दूसरे से अलग-अलग.
पहुँच जाएंगे शब्दकोष में अपनी-अपनी जगह,
जल्दबाजी में समेट लेंगे वेअपने अर्थ भी,
लेने को एक नई पहचान, एक नव-शरीर के साथ।

पुरूष कहीं होगा, उत्तम कहीं, कहीं होगा कुमार,
सिंहा होगा कहीं, करता हुआ पुनर्विचार,
एक दिन असंख्य लोगों की तरह, 
मिट जाऊँगा मैं भी, मिट जाएगा मेरा नाम भी।

पर निज पर है मुझे विश्वास कि रहूंगा मैं,
फिर भी जीवित, चिर-मानस में तुम्हारे,
राख में दबे अंगारे की तरह,
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित,
रहूंगा जीवित फिर भी मै -फिर भी मैं।
भुला न पाओगे तुम मुझे जीवन पर्यन्त।