स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......
मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग किसी सिक्त क्षण में,
न ही, तुम्हारे रिक्त मन में,
न ही, तुम्हारे उजाड़ से सूनेपन में,
न ही, तुम्हारे व्यस्त जीवन में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे तन-बदन में ....
स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......
मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बदन से आती हवाओं में,
न ही, तुम्हारी सदाओं में,
न ही, तुम्हारी जुल्फ सी घटाओं में,
न ही, तुम्हारी मोहक अदाओं में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी वफाओं में ....
स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......
मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग अगन के सात फेरों में,
न ही, तुम्हारे मन के डेरों में,
न ही, तुम्हारे जीवन के थपेड़ों में,
न ही, तुम्हारे गम के अंधेरों में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे उम्र के घेरों में ....
स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......
मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे सुप्त विलुप्त भावना में,
न ही, तुम्हारे कर कल्पना में,
न ही, तुम्हारे मन की आराधना में,
न ही, तुम्हारे किसी प्रार्थना में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे प्रस्तावना में ....
स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......
मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बीतती किसी प्रतीक्षा में,
न ही, तुम्हारी डूबती इक्षा में,
न ही, तुम्हारी परिधि की कक्षा में,
न ही, तुम्हारी समीक्षा में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी अग्निवीक्षा में ....
स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......