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Sunday, 11 October 2020

जिद्दी जमीं

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

खुद में छिपाए, प्राण कितने!
पिरोए, जीवन के, अवधान कितने,
जीवन्त रखते, अरमान कितने!
जरा सा, थम सी जाती है,
जिद्दी जमीं!

भला, वो बीज, सोता है कब!
वो गगण फिर, रक्ताभ होता है जब,
अंकुरित होते हैं, प्राण कितने!
फिर से, विहँस पड़ती है,
जिद्दी जमीं!

निष्फल, रहता नित कामरत!
सर पे धूप ढ़ोता, जूझता अनवरत,
नित लांघता, व्यवधान कितने!
पुन:श्च, गोद भर जाती है,
जिद्दी जमीं!

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 18 October 2018

उद्वेलित हृदय

मेरे हृदय के ताल को,

सदा ही भरती रही भावों की नमीं,

भावस्निग्ध करती रही,

संवेदनाओं की भीगी जमीं.....



तप्त हवाएं भी चली,

सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,

वेदनाओं से भी बिधी,

मेरे हृदय की नम सी जमीं.....



उठते रहे लहर कई,

कितने ही भँवर घाव देकर गई,

संघात ये सहती रही,

कंपकंपाती हृदय की जमी....



अब नीर नैनों मे लिए,

कलपते प्राणों की आहुति दिए,

प्रतिघात करने चली,

वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....



क्यूँ ये संताप में जले,

अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,

रक्त के इस भार से,

उद्वेलित है हृदय की जमीं....

Wednesday, 4 July 2018

नीर थे वो

नीर थे वो, जो नैनों से छलककर बह गए.....

जज्ब थे ये नैन की कटोरियों में,
या हृदय की क्यारियों में,
वर्षों तलक, अर्सों से यहीं...
दफ्न थे ये सब्र की तिजोरियों में....

कुछ विष भरे दंश देकर,
मन में टीस के कुछ बीज बोकर, 
फिर कुरेदा है किसी ने,
इस हृदय की बंजर सी जमीं को....

सब्र का जब बांध टूटा,
यूं हृदय से धैर्य का हाथ छूटा,
सुबकते नैन में ये भर गए,
जज्ब थे ये, अचानक फूटकर ये बह गए..

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

अब रिस रहे ये बंजर से हृदय में,
भर चुके मन की निलय में,
पाषाण जमी सिक्त हो चली...
सदय हो चला, बंजर सा ये हृदय....

कुछ बूंद नैनों में उतरकर,
टीस मन के कुछ हाथों से धोकर,
फिर से बांधा है इसी ने,
बंजर हृदय के टूटे हुए धैर्य को....

सब्र तब मन को मिला,
जब नीर बन ये नैनों से चला,
घनीभूत ये हृदय में रहे,
जज्ब से थे, द्रवीभूत हो टीस में बह गए...

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

Thursday, 23 November 2017

बर्फ के फाहे

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

कुछ बर्फ, सुखी डालियों पर थी जमीं,
कुछ फाहे, हरी पत्तियों पर भी रुकी,
अवसाद कम गए, साँस थोड़े जम गए,
किरण धूप की, कही दूर जा छुपी,
व्यथित जमीं, परत दर परत जम चुकी....

यूँ ही व्यथा तभी, भाफ बन कर उड़ी,
रूप कई बदल, यूँ बादलों में उभरी,
कभी धुआँ, कभी रहस्यमयी सी आकृति,
अविरल बादलों में, अनवरत तैरती,
वेदनाओं से फिर, आक्रांत थी ये संसृति....

यूँ संसृति की जमीं पर, गिरे बर्फ के फाहे,
कुछ घाव भरे, कुछ दर्द उठे अनचाहे,
कभी तृप्त हुए, कभी उभरे हृदय पर छाले,
ठिठुरते से कोहरों में कभी रात गुजारी,
कोमल से फाहों में, वेदना मे घिरी संसृति...

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....