Saturday, 12 May 2018

इच्छाओं के पंछी

इच्छाओं के प॔छी यूं ही उड़ते हैं पंख पसारे!
कब साकार हुए है स्वप्न सारे......?

कभी आकाश नही मिलता इच्छाओं  को,
कभी कम पड़ता हैं आकाश, इन्हे उड़ पाने को,
काश! न होते इन जागी इच्छाओं  के पर,
काश! न जगते रातों में ये स्वप्न हमारे...

अचेतन मन में, दफ्न हुए ये स्वप्न सारे...!

इच्छाओं के बिन, लक्ष्यविहीन ये जीवन,
इच्छाओं के संग, तिल-तिल जलता ये जीवन,
है रक्तविहीन, ये अपूरित इच्छाओं के घर,
काश! न मरते रातों में ये स्वप्न हमारे....

जागी आँखों में, दफ्न हुए ये स्वप्न सारे...!

हैं गिनती की साँसें, हैं गिनती की रातें,
क्यूं बस ऐसे ही स्वप्नों में, हम ये रात बिता दें?
क्यूं न इन साँसों को हम सीमित इच्छा दें,
काश! यूं सजते रातों में ये स्वप्न हमारे....

इन आँखों में, साकार होते ये स्वप्न सारे...!

ना ही खिल पाते है, हर डाली पर फूल,
ना ही बूंद भरे होते हैं हर बादल में,
हर जीवन का होता है अपना ही इक अंत,
काश! ना जलते अनंत इच्छाओं के तारे.....

मगर, इच्छाओं के प॔छी, उड़ते हैं पंख पसारे!
कब साकार हुए है स्वप्न सारे......?

क्या हो तुम

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

हो सुबह या सघन रात हो,
सांझ हो या प्रभात हो,
धूप या बरसात हो,
या चुप सी कोई बात हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

हो बेहोश या मदहोश हो,
मूरत सी खामोश हो,
चटकती कली हो,
या बंद लफ्जों में ढ़ली हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

यूं जेहन में आ बसी हो,
खुश्बुओं में रची हो,
या रंगों में ढ़ली हो,
क्या बस इक ख्वाब हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

तन्हा पलों की संगिनी हो,
जैसे कोई रागिनी हो,
कूक कोयल की हो,
दूर से आती आवाज हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

स्नेह की कोई लड़ी हो,
या चहकती सी परी हो,
सहज हो शील हो,
या खुदा का आब हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

Friday, 11 May 2018

भोर की पहली किरण

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

घुल गई है रंग जैसे बादलों में,
सिमट रही है चटक रंग किसी के आँचलों में,
विहँसती खिल रही ये सारी कलियाँ,
डाल पर डोलती हैं मगन ये तितलियाँ,
प्रखर शतदल हुए हैं अब मुखर,
झूमते ये पात-पात खोए हुए हैं परस्पर,
फिजाओं में ताजगी भर रही है पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

निखर उठी है ये धरा सादगी में,
मन को लग गए हैं पंख यूं ही आवारगी में,
चहकने लगी है जागकर ये पंछियाँ,
हवाओं में उड़ चली है न जाने ये कहाँ,
गुलजार होने लगी ये विरान राहें,
बेजार सा मन, अब भरने लगा है आहें,
फिर से चंचल होने लगा है ये पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

गूंज सी कोई उठी है विरानियों में,
गीत कोई गाने लगा है कहीं रानाईयों में,
संगीत लेकर आई ये राग बसंत,
इस विहाग का न आदि है न कोई अंत,
खुद ही बजने लगे हैं ढोल तासे,
मन मयूरा न जाने किस धुन पे नाचे,
रागमय हुआ है फिर से ये भवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

Thursday, 10 May 2018

ओ बाबुल

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

कोई नन्ही कली सी, मैं तो थी खिली,
तेरे ही आंगन तो मैं थी पली,
चहकती थी मै, तेरा स्नेह पाकर,
फुदकती थी मैं, तेरे ही गोद आकर,
वही ऐतबार, तु मेरा देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

स्नेहिल स्पर्श, तुने ही दिया था मुझे,
प्रथम पग तूने ही सिखाया मुझे,
अक्षर प्रथम तुझसे ही मैं थी पढी,
शीतल बयार सी मै तेरे ही आंगन बही,
स्नेह का फुहार, वही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

बरखा बहार मैं, थी मेघा मल्हार मैं,
हर बार पाई तेरा दुलार मैं,
अब जाऊंगी कहाँ उस पार मैं,
न अलविदा तेरे मन से है होना मुझे,
विदाई का उपहार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

मैं हूं विश्रंभी, तू मेरा ऐतबार रखना,
विश्वास का मेरे है तू ही गहना,
भूलूंगी ना मैं, तुझे अन्तिम घड़ी तक,
मिलने को आऊंगी, मैं तेरी देहरी तक,
मोह का संसार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

Tuesday, 8 May 2018

सम्मोहन

हो बिन देखे ही जब भावों का संप्रेषण,
उत्सुक सा रहता हो जब-तब ये मन,
कोई संशय मन को तड़पाताा हो हर क्षण,
पल पल फिर बढता है ये सम्मोहन....

ये सम्मोहन के अनदेखे मंडराते से घन,
नभ पर घनन-घनन गरजाते ये घन,
शायद उन नैनों के तट से आए है ये घन,
निष्ठुर कितना है ये प्रश्नमय संप्रेषण.....

भावों का ये प्रश्नमय अन्जाना संप्रेषण,
अनुत्तरित प्रश्नों में उलझा ये प्रश्न,
इन अनसुलझे प्रश्नो से भरमाया है मन,
ओ अपरिचित, ये कैसा है सम्मोहन....

शायद ये किसी विधुवदनी का आवेदन,
या हो यह विधुलेखा का सम्मोहन,
सम्मोहित करती हो शायद वो विधुकिरण,
ओ विधुवदनी,ये कैसा है सम्मोहन....

ओ मन रजनी, विधुवदनी ओ विधुलेखा,
ओ साजन, ओ अन्जाना, अनदेखा,
मन की भावो में लिपटा ये भावुक संप्रेषण,
पल पल बढ़ता ये तेरा है सम्मोहन....

Friday, 27 April 2018

अस्तित्व

कैसे भूलूं कि तेरे उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पंदन से निखरता था व्यक्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....
मगर अब, भूल जाना तुम, वो इबादतों के पल....

Monday, 23 April 2018

माँ शारदे

हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!
टूटे मन की इस वीणा को तू झंकार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

हम खोए हैं, अंधकार में,
अज्ञानता के, तिमिर संसार में,
तू ज्ञान की लौ जला,
भूला हुआ हूँ, राह कोई तो दिखा,
मन में, प्रकाश का मशाल दे,
मुझे ज्ञान की, उजियार का उपहार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

भटके हैं, स्वर इस कंठ में,
न ही सुर कोई, मेरे कुहुकंठ में,
तू सुर की नई सी तान दे,
बेस्वर सा हूँ, नया कोई इक गान दे,
तू स्वर का, मुझको ज्ञान दे,
सप्त सुरों की, अनुराग का उपहार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

जीवन के, इस आरोह में,
डूबे रहे हम, काम मद मोह में,
तू प्रखर, मेरे विवेक कर,
इक नव विहान का, अभिषेक कर,
तू नव उच्चारित, आरोह दे,
मेरे अवरोह में, सम्मान का उपहार दे.....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

बुझता हुआ, इक दीप मैं,
प्रभाविहीन सा, इक संदीप मैं,
तू प्रभा को, प्रभात दे,
बुझते दिए की, लौ को प्रसार दे,
आलोकित सा विहान दे,
प्रभाविहीन मन में प्रभा का उपहार दे...
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!
टूटे मन की इस वीणा को तू झंकार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

Friday, 6 April 2018

रहस्य

दो नैनों के सागर में, रहस्य कई इस गागर में.....

सुख में सजल, दुःख में ये विह्वल,
यूं ही कभी खिल आते हैं बन के कँवल,
शर्मीली से नैनों में कहीं दुल्हनं की,
निश्छल प्रेम की अभिलाषा इन नैनों की....

तिलिस्म जीवन की, छुपी कहीं इस गागर में...

ये काजल है या है नैनों में बादल,
शायद फैलाए है मेघों ने अपने आँचल,
चंचल सी चितवन, कजरारे नैनों की,
ईशारे ये मनमोहक, इन प्यारे से नैनों की....

है डूबे चुके कितने ही, इस बेपनाह सागर में.....

पल में ये गजल, पल में ये सजल,
हर इक पल में खुलती है ये रंग बदल,
कहती कितनी ही बातें अनकही,
रंग बदलती चुलबुल सी भाषा नैनों की....

अनबुझ बातें कई, रहस्य बनी इस सागर में....

Tuesday, 3 April 2018

ढ़हती मर्यादाएँ

ढ़हती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

चलते रहे दो समानान्तर पटरियों पर,
इन्सानी कृत्य और उनके विचार,
लुटती रही अनमोल विरासतें और धरोहर,
सभ्यताओं पर हुए जानलेवा प्रहार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कथनी करनी हो रहे विमुख परस्पर,
वाचसा कर्मणा के मध्य ये अन्तर,
उच्च मानदंडों का हो रहा खोखला प्रचार,
टूटती रही मान्यताओं की ये मीनार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

करते रहे वो मानदण्डों का उल्लंघन,
भूल गए है छोटे-बड़ों का अन्तर,
न रिश्तों की है गरिमा, न रहा लोकलाज,
मर्यादा का आँचल होता रहा शर्मसार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कर्म-रहित, दिशाविहीन सी ये धाराएँ,
कहीं टूटती बिखरती ये आशाएँ,
काल के गर्त मे समाते मूल्यवान धरोहर,
धूलधुसरित होते रहे मन के सुविचार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

Sunday, 1 April 2018

दंगा

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?

वो कहते हैं कि हुए थे दंगे!
दो रोटी को जब लड़ बैठे थे दो भूखे नंगे....
अब तक है वो दोनो ही भूखे!
है कौन उसे जो देखे?
भूख से ऐंठती विलखती पेट पकड़ कर,
संग देख रहे थे वो भी दंगे!
बस उन दंगो से, था उनका कोई नाता नहीं!
क्यूं उस पेट की...
जलती आग बुझाने कोई आता नही!

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

ये दंगे तो यूं ही भड़केगे,
जब तक भूख, गरीबी से हम तड़पेंगे!
दिग्भ्रमित करेंगें ये धर्म के नारे,
शर्मसार करेगे ये हमको खुद अपनी नजरों में,
जवाब खुद को हम क्या देंगे?
छल, कपट, वैर, घृणा, वैमनस्य के ये बीज,
क्या अपनी हाथों खुद हम बोएंगे?
क्यूं ये वैर भाव....
ये द्वेष मन से मिटाने कोई आता नही?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

कश! अलग-अलग न होते,
ये मंदिर, ये मस्जिद, ये गिरिजाघर,
काश एक होता ईश्वर का घर,
एक होती साधना, एक ही होती भावना,
कहर दंगों का न हम झेलते,
लहू में धर्मान्धता के जहर न फैलते,
पीढ़ियाँ मुक्त होती इस श्राप से...
क्यू इस श्राप से...
जीवन मुक्त कराने कोई आता नहीं?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?