छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
थम सा चुका था, ये वक्त,
किसी पर्वत सा, जड़! यथावत!
गुजरती ही नहीं थी, आँखो से वो तस्वीर,
निरर्थक थी सारी कोशिशें,
दूर कहीं जाने की,
बस, विपरीत दिशा में, सरपट भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
जैसे, मन पर लगे थे पहरे,
पर्वतों के वो डेरे, अब भी थे घेरे!
आते रहे पास, बांधते रहे वो एहसास,
निरंतर ही करते रहे स्पर्श,
पुकारते रहे सहर्ष,
खींचते रहे, अपनी ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
डरा-डरा, था ये मन जरा!
चाहता न था, ये बंधनों का पहरा!
हो स्वच्छंद, तोड़ कर भावनाओं के बंध,
उड़ चला, ये सर्वदा निर्बंध,
स्पर्श के वो डोर,
रहे बंधे उनकी ही ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
थम सा चुका था, ये वक्त,
किसी पर्वत सा, जड़! यथावत!
गुजरती ही नहीं थी, आँखो से वो तस्वीर,
निरर्थक थी सारी कोशिशें,
दूर कहीं जाने की,
बस, विपरीत दिशा में, सरपट भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
जैसे, मन पर लगे थे पहरे,
पर्वतों के वो डेरे, अब भी थे घेरे!
आते रहे पास, बांधते रहे वो एहसास,
निरंतर ही करते रहे स्पर्श,
पुकारते रहे सहर्ष,
खींचते रहे, अपनी ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
डरा-डरा, था ये मन जरा!
चाहता न था, ये बंधनों का पहरा!
हो स्वच्छंद, तोड़ कर भावनाओं के बंध,
उड़ चला, ये सर्वदा निर्बंध,
स्पर्श के वो डोर,
रहे बंधे उनकी ही ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!
छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा