संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद,
दबाए, अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार,
अन्तस्थ कर गई हैं, तार-तार!
जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
कभी थिरकाती थी, पाँचो ऊंगलियाँ,
और, नवाजती थी शाबाशियाँ,
वो बातें, बन चुकी बस कहानियाँ,
अब है कहाँ, वो झंकार?
अब न झंकृत हैं, मेरे पुकार!
जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
वश में कहाँ, किसी के ये संवेदनाएं,
खुद ही, हो उठते हैं ये मुखर,
कर उठते हैं झंकार, ये गूंगे स्वर,
खामोशी भरा, ये पुकार,
जगाता है, बनकर चित्कार!
जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
ढ़ल चुका हूँ, कई नग्मों में सजकर,
बिखर चुका हूँ, हँस-हँस कर,
ये गीत सारे, कभी थे हमसफर,
बह चली, उलटी बयार,
टूट कर, यूँ बिखरा है सितार!
जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
जज्ब थे, सीने में कभी नज्म सारे,
सब्ज, संवेदनाओं के सहारे,
बींधते थे, दिलों को स्वर हमारे,
उतर चुका, सारा खुमार,
शेष है, वेदनाओं का प्रहार!
जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा