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Thursday, 14 November 2019

एक क्षण

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

उसने तोड़ा था, बारीकियों से ये मन,
डाली से, ज्यूं झरते हैं सुमन,
ठूंठ होते हैं, ज्यूं पतझड़ में ये वन,
ज्यूं झर जाते हैं, ये पात-पात,
हौले-हौले, बिखरे हैं ये जज्बात,
एक क्षण की, वो बात,
हर-क्षण, उसे भी तड़पाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

नाजुक सा ये मन, कोई पाषाण नहीं,
यूँ भूल जाना, आसान नहीं,
बिन खनक, यूँ ही टूट जाते हैं ये,
टुकड़ों में फिर, जी जाते है ये,
हौले-हौले, पिघलती है ये हर रात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी पिघलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

कटते नहीं, उम्र भर, ये एक ही क्षण,
कैसे रुके, बहती सी पवन,
कैसे रुके, बहते साँसों के ये घन,
कैसे रुके, ये जीवन के चरण,
हौले-हौले, बहा ले जाए ये साथ,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी याद आता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

बीते ना ये पतझड़, न आये वो बसंत,
ये राह, क्यूँ हुआ है अनन्त,
विचारे है क्यूँ, अब ओढ़े ये मलाल,
बुझ गई, जली थी जो मशाल,
हौले-हौले, पतझड़ के वो लम्हात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी न भुलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 April 2016

रूप लावण्य

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

उभरा है रूप वही फिर इक बार सामने,
तड़प कई जगा गई है वो रूप इन धड़कनों में,
आईने की तरह रूबरू वो रूप इस मन में,
दबी चाहतों के स्वर निखरे हैं फिर से चमन में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

सम्मोहन है कैसी न जाने उस रूप में,
असंख्य तार जुड़े है तड़प के उस स्वरूप में,
हो न हो उस तरफ मैं ही हुँ उनके मन में,
लावण्य रूप का वो बस चुकी है मेरे हृदय में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

आईना रूप का वो न टूटे कभी इस मन में,
लावण्य चाहतों का कभी कम न हो उस रूप में,
कतारें बहारों की ढ़लती रहे उनके ही संग में,
बीते ये जीवन उस रूप के आँचलों के साये तले में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

Thursday, 17 March 2016

कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी

भाग्य कैसा! कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी वो!

मरुस्थल के सूखी गर्म रेत सी जिन्दगी वो,
मन का आँगन दूर तक विराना,
बालूका तट सी झिलमिल आँखो के कोर,
हृदय में उठती रेत के समुन्दरों के अगनित ज्वर।

प्रारब्ध कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

रेगिस्तान की तपती धूलकण सी जिन्दगी वो,
शरीर रेतकण के ढेर सी ढही हुई,
सैकत ही सैकत दूर तक कोई गीलापन नहीं,
होंठ की कोर में सुलगते दुःखों के असंख्य स्वर।

विधि कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

पिक कहुकिनी वो, पर भूल चुकी थी गाना वो,
सूख चुके थे मन के कानन वन उसके,
अंतर की ध्रुवगंगा सुखी मधुऋतु के इंतजार में,
चेतनतत्व की आसमा से गुजर रहा निर्जल पयोधर।

नियति कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

Saturday, 6 February 2016

कुछ दे न सका उसको

कुछ दे न सका उसको मै जीवन में,
कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

पीड़ा कौन सी तड़पाती उसे,
पीड़ हृदय के मैं समझ न सका उसकी,
वेदना किस व्यथा की उसे,
व्यथा का विस्तार समझ न सका उसकी,
देखती रही वो आँखें मुझको ही,
मन के मृदुभाव कभी पढ़ न सका उसकी,

कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

कुछ दे न सका उसको मैं,
कांटे रास्तों के मैं चुन न सका उसकी,
जाने किस आग मे राख वो,
आग दामन से मैं बुझा न सका उसकी,
भटकती है अब भी रूह वो,
स्याह काली रातों में दरबदर यहाँ उसकी।

कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

पर विदा इस दुनियाँ से अब वो,
जरूरत दुनियादारी की नही अब उसको,
आग, प्यास, पीड़ा, वेदना, काँटों से अब परे वो,
जाने किसकी प्यास थी उन आँखों को,
तलाशती थी क्या अंत तक उदास आँखें उसकी,
पूछ भी न पाए लब मेरे जीवन भर उससे।

कुछ दे न सका उसको मै जीवन में,
कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।