Monday 11 January 2016

ठहरा हुआ पल

पल जो इक ठहर गया,
सिलसिले थम से गए,
मिलने जुलने और बातों के,
रास्ते गुम हुए कोहरो की धुंध में,
तुफान थम गए हसरतों के,
वक्त ठहर सा गया है यहीं,
उस पल की तानाइयों मे।

यादों के धुंधले से कारवाँ,
नजरों से गुजरती झीनी परदों सी,
उस पल की भीनी खुशबु,
अब भी फैल जाती है सासों मे,
जम सी जाती हंदयस्पंदन,
गति धड़कनों की थमी,
वक्त ठहर सा गया है कहीं,
उन पल की अमराइयों मे।

मंद बयार चल पडे थे उस पल,
बहक से गए जो तुमको छुकर,
अब तक बह रही ख्यालों में,
सप्तरंग घुले दिल की फजाओं में,
जेहन में बिखर गहरा गए है वो,
अटखेलियाँ उन लम्हों की
महफूज है दिल के कोने मे,
संगमरमर के मूरत की तरह,
वक्त ठहर सा गया है,
उस पल की अंगराइयों मे।

वो यतीम बच्चा

वो दूधपीता बच्चा,
वह छोटा मासूम सा,
नन्हीं टांगों से बेपरवाह,
अटखेलियाँ करता,
स्टेशन के दूसरे किनारे पर,
आती जाती ट्रेन को देख,
कभी थोड़ा खुश हो जाता,
फिर अगले ही पल,
निगांहे इधर उधर दौड़ाता,
फिर भूख से बिलख पड़ता।

तेज घूप चेहरे पर पड़ती
परेशान हो जाता वो,
भूख-प्यास की
तड़प बढ जाती,
अंदर तक उसे सता जाती,
शायद ममता की छांव
से बहुत दूर था वो,
सहसा अंधेरे में एक कदम देख,
चेहरा खिल सा उठा उसका,
आँखों में चमक आ गई,
तभी एक साए ने उसे गोद मे ले
सीने से लगा लिया।

मैंने सोचा शायद वो,
काम मे कहीं अटकी होगी,
पर ये क्या? मंजर बदल गया!
अगले ही कुछ पलों मे,
आँखें पोछती वो वापस जा चुकी थी!

भिखारियों के एक झुंड ने मोहवश,
उस बच्चे को गोद ले लिया,
उत्सुकतावश मैंने
उस बच्चे के बारे में पूछा,
जवाब मिला, "यतीम भाई है अपना"
मैं सन्न सा सोचता रह गया ।

प्रभात आभा

झांक रहा है सूरज दूर मुंडेड़ से पहाड़ के,
रंग पीला और गुलाबी आसमां पे डाल के।

बादलों में बिखेर जाती रश्मि प्रभा सतरंगी,
रूप सवाँरती धरा का देकर छटा अठरंगी।

सौन्दर्य आकाश के सँवारती विविध रंगों से,
मानो खेल रहा होली वो बादल के अंगो से।

हिमगिरि के शीष पे बिखर गई है किरण,
छिटक गई बर्फ की वादियों पर बन स्वर्ण।

कलियों ने स्वागत मे खोल दिए घूँघट सोपान,
कलरव करती पंछियों ने छेड़े हैं स्वागत गान।

ऐसी मधुर प्रभात की आभा मै भी निहार लूँ,
संग मेरे तू आ सजनी, प्रीत का नव हार लूँ।

Sunday 10 January 2016

इक नया आसमा

इक नया आसमाँ नित इक नई मंजिल,
पाना चाहते बेखबर ये दो दिल बार-बार,
अनोखा इक नया गीत, मधुरतम इक नई संगीत,
धड़कनों के धड़कने की अनोखी इक नई रीत,
सुनाना चाहते दुनिया को ये दो दिल हर बार।

जैसे लहरें समुन्दर की झूम कर आती साहिल पर,
टूटकर बिखर जाती दामन में इसके बार-बार,
छेड़ जाती धुन एक नई प्यार की,
रूप अनोखा दे, करती फिर नया इक वादा,
लौट आऊंगा मचल फिर करने प्यार हर बार।

जैसे सूरज रोज आता बादलों के पीछे से,
रंग वसुधा को दे करता इजहारे प्यार बार-बार,
जलाता तपिश से उसे रंग मे अपनी रंग लेता,
लौट जाता फिर कर इक नया वादा,
रोज आऊंगा देने तुझे इक नई तपिश हर बार।

जैसे हवाएँ रोज आती पेड़ों के दामन में,
पत्तियों को छू करती प्यार का इजहार बार-बार,
झकझोर जाती शाखों को सरसराहट से,
गुजरती कोर से करती रोज इक नया वादा,
सँवर-निखर तू आऊँगा छेड़ने तुझको हर बार।

प्यार का इक नया आसमाँ पाना चाहते ये दो दिल।

इन्द्रधनुष: धुन और रंग

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की?
जीवन के विविध धुनों को,
सात अारोह-अवरोह के स्वरो.....
सा, रे, ग, म, प, ध नी, सा,....में,
किसने कोशिश की जीवन धुन को 
परिमित करने की?
जीवन के धुन तो हैं अपरिमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी जटिलताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की
जीवन के विविध रंगों को,
इन्द्रधनुष के सात रंगों......
बै, नी, आ, ह, पी, ना, ला....,में,
किसने कोशिश की जीवन रंग को 
सीमित करने की?
जीवन के रंग तो हैं असीमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी विविधताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी! जीवन के रंग, धुन तो हैं अनंत!

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।

सूर्य नमन

नमन आलिंगन नव प्रभात, 
हे रश्मि किरण तुम्हारा,
खुद अग्नि मे हो भस्म,
तम हरती करती उजियारा।

जनकल्यान परोपकार हेतु
पल-पल भस्म तू होती,
ज्वाला ज्यों-ज्यों तेज होती,
प्रखर होती तेरी ज्योति ।

विश्व मे पूजित हो पाने का,
अवश्यमभावी मंत्र यही है,
निष्काम्-निःस्वार्थ परसेवा,
जीवन का आधार यही है।

सीख सभ्यता को नितदिन,
तू देता निःशुल्क महान,
परमार्थ कार्य तू भी सीख,
मानव हो जगत कल्याण।