Sunday 10 January 2016

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।

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