Wednesday 10 February 2016

बचपन की जिद

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

सोचता हूँ बचपन का नन्हा सा बालक हूँ आज मैं,
जिद करता हूँ अनथक छोटी छोटी बातों को ले मैं,
चाह मेरी छोटी छोटी सी, पर है कितनी जटिल ये,
मम्मी पापा दोनों से बार-बार करता कितना रार मैं,
नन्हा सा हूँ पर मम्मी पापा से करता अपने प्यार मैं।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

यूँ तो पूरी हो जाती हैं सारी दिली फरमाइशें मेरी,
पर मेरे मन की ना हो तो फिर जिद तुम देखो मेरी,
चाकलेट की रंग हो या फिर आइसक्रीम की बारी,
चलती है बस मेरी ही, नही चाहिए किसी की यारी,
नन्हा सा हूँ तो क्या हुआ पसंद होगी तो बस मेरी।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

रातों को सोता हूँ तो बस अपनी मम्मी पापा के बीच,
खबरदार जो कोई और भी आया हम लोगों के बीच,
दस बीस कहानी जब तक न सुन लू सोता ही मैं नहीं,
मम्मी की लोरी तो मुझको सुननी है बस अभी यहीं,
सोता हूँ फिर चाकलेट खाके पापा मम्मी के बीच ही। 

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

उठता हूँ बस चार पाँच बार रातों में माँ-माँ कहता,
पानी लूंगा, बाथरूम जाऊंगा मांग यही बस करता,
स्वप्न कभी आए तो  परियों की जिद भी करता हूँ,
खेल खिलौने मिलने तक मैं खुश कम ही होता हूँ,
मांगे मेरी पूरी ना हो तो घर को सर पर ले लेता हूँ।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

कपड़े की डिजाइन तो होगी, बस पसंद की मेरी ही,
पापा चाहे कुछ भी बोलें, कपड़े लूंगा तो मैं बस वही,
हुड डिजाइन वाले कपड़े, तो बस तीन-चार लूंगा ही,
पापा मम्मी के कपड़े भी, पसंद करूंगा तो बस मैं ही,
कोल्ड ड्रिंक, समोसे, पिज्जा, चिकन तो मैं लूंगा ही।

बचपन की जिद और तकरार आती याद बारबार!

(मेरी बेटी की फरमाईश पे लिखी गई कविता)

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

मैं रहता हूँ हृदय में तेरे मांग तेरी सजाता हूँ,
तुम देखती हो सपने, सिर्फ मेरे ही सपने,
जुल्फों की बिखरी लटें तेरी मैं ही सहलाता हूँ,
रोज ही गूंधता हूँ एक फूल लटों में तेरे ।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

तुम्हारी आँखों में सजाता हूँ जीवन की तस्वीरें,
गगन की छाँव से काजल ले आता हूँ,
इन्तजार में देहरी पर बैठी हो तुम मेरे ही,
तेरी आँखों में बस एक मैं ही रहता हूँ।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

देखता हूँ बीतती उमर अपनी सामने तेरे,
तुम साधना में बैठी हो संग मेरे ही,
उदय होते है दिन मेरे नयनों के निलय में तेरे,
मुग्ध होता हूँ झुर्रियाँ देख चेहरे पे तेरे।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम।

विदाई के क्षण

छलकती हैं आँखों की देहरी पर नीर,
क्षण विदाई की घड़ियाँ के देती मन को चीर,
झरते हैं नैंनों से आँसू निर्झर सी रह रह,
नभ से झरते ओस की बूंदो की तरह।

क्षण अति कारुणामय होता है वह,
बिछड़ते मात, पिता, भाई बहन, बन्धु जब,
फफक फफक रो पड़ता हृदय तब,
देहरी बदल जाती जीवन की इस तरह।

विदाई नही सिर्फ एक जन की यह,
छूट जाते हैं रिश्ते, नाते, पड़ेसी, कुटुम्ब सब,
टीस दिलों की और बढ़ जाती तब,
नैन नीर अधीर हो बहती निर्झर की तरह।

रुके हुए शब्द

छलकते नैनों से बह गए हैं नीर निर्झर,
थरथराते लबों के शब्द गए हैं  निःशब्द,
ओस की बूंदों सी छलकी हैं नीर नीरव,
कहानी कोई अनकही रह गई है शायद।

झर झर निर्झर सी बह रही है अब आँखें,
खामोशियाँ की जुबाँ कह गई है सब बातें,
छलकते नीर शब्द बन गईं हैं अब लबों पे,
आह, दारुणिक कथा कितनी इन नैनों के।

रोक लेता कोई नीर, नैन छलकने से पहले,
निःशब्द को जुबाँ देता कोई कहने से पहले,
काँपते अधरों को शब्द दे जाता कोई पहले,
व्यथा कोई सुन लेता नैन छलकने से पहले।

छलकते प्याले

छलकते प्यालों की उम्र लेकर,
समय की कालचक्र में घूमता जीवन,
प्यालों की विसात क्या, किस पल छूटे हाथों से,
छलकती जाती जीवन इन प्यालों से।

कब टूटेगी हाथों से गिरकर,
साँसें कब छलकेगी प्यालों में मचलकर,
परिधि जीवन के प्याले की, पुकारती रह रहकर,
गति कालचक्र की चंचल तेज प्रखर।

प्याले ही तो है हम जीवन के,
भरकर जाम हममें पी रहा वो मतवाला,
शोक मनाता तू फिर क्यों, टूटी जो जीवन प्याला,
रचयिता भर लाएगा, फिर नई इक हाला।

टूटते हैं प्याले तो टूटने दे,
हाला प्याले की कालचक्र के हाथों में दे,
काल परिधि में रम, घूँट हाला की तू भी पी ले,
प्याला तो प्याला है, छलकने इनको दे।

Tuesday 9 February 2016

सिसकी की प्रतिध्वनि

रूक रूक कर गूंजती एक प्रतिध्वनि,
रह रह कर सुनाई देती कैसी सिसकी,
कौन सिसक रहा आधी रात को वहाँ?

किस वेदना की है करुण पुकार यह,
रह रह कर उठती यह चित्कार कैसी,
छनन छन टूटने की आवाज है कैसी?

क्रंदन किसी बाला की है यह शायद,
दुखता है मन उस बाला की वेदना से,
क्या आसमान टूटा है उस बाला पे?

अनमनी चल रही हैं क्यूँ साँसें उसकी,
अन्तस्थ छलनी कर गई यह सिसकी,
हृदय-विदारक प्रतिध्वनि गूंजती क्युँ?

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।