Monday, 23 May 2016

एक आलाप जीवन का

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

हकीकत हो तुम मेरे अर्धजीवन की,
अर्धांगिनी हो तुम ही मेरी अधूरे सपन जीवन की,
संगिनी तुम ही अनचाहे इन दूरियों की,
सपनों में तुम बिखरते हो ख्यालों से निकलकर।

क्षण-क्षण छू जाते हो तुम हर रोज मुझे,
एक नया अधूरा मनचाहा ख्वाब सा बनकर...
अर्धजीवन की राहों पर देखता हूँ मैं तुमको छूकर,
हकीकत बन जब उभरते हो ख्वाबों से चलकर।

तुम अधूरी सी गीत कल्पना की चादरो में लिपटी,
कुछ शब्द अधूरे है मेरे दामन मे भी लिपटे,
अधूरे ख्वाबों के पल मे वो गीत पूरे से बनने लगते,
ये दुनिया यूँ ही कहती है कि तुम मेरे करीब नहीं........

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

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