Saturday 10 April 2021

बेजुबां खौफ

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे, 
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....

12 comments:

  1. हाल फिलहाल के हालात के प्रति आपकी यह पंक्तिबद्ध अभिव्यक्ति उचित ही है।
    हमारे ही कर्मों के दुष्परिणाम हैं जो हम भोग रहे।
    लापरवाही,बेपरवाही तो आदत बन चुकी थी हम सबकी। अब भी चेत नही आया तो आगे की परिस्थितियाँ और भयावह हो सकती हैं।
    और उम्र यूँ ही ढलती जायेगी।
    आपके इस लाजवाब सृजन हेतु हार्दिक बधाई एवं आभार। सादर प्रणाम 🙏

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    1. बिल्कुल सही आकलन किया है आपने। एक सजग व जागरुक मन ही ऐसा सोंच सकता है।
      स्वस्थ रहें और सकुशल रहें।
      बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। ।।।

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  2. न जाने क्या क्या ले गया ये छोटा सा वायरस
    किसी भाई तो किसी को मां तो किसी की गोद सूनी कर गया ये छोटा सा वायरस
    रिश्तों में प्यार ही कहां था कि और दूरियां बढ़ा गया ये छोटा सा वायरस..…बहुत ही भयावह स्थिति बनती जा रही है पता नही क्या होने वाला है

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    1. सच तो यही है, हम खतरे को भांपकर भी बेपरवाह है। कोई करे तो क्या?
      आप स्वस्थ व सकुशल रहें, यही कामना है।

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  3. वाकई जुबां बेज़ुबां हो रही है .... पूरा वर्ष निकल गया इसी खौफ में जीते जीते .... अभी भी लोग शायद समझ ही नहीं रहे भयावहता ...लापरवाही की भी हद है ...
    समसामयिक रचना ...

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    1. शुक्रिया आदरणीया। सावधान रहें, स्वस्थ रहें। ।।।

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  4. चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
    बिन बात, अलग दो बाहें,
    शून्य को, तकते नैन,
    विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
    यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!
    बिल्कुल सच फरमाया आपने...जीवन बड़ा कठिन और दुरूह सा हो गया है,कुछ कहने को ही नही रहा....समसामयिक और यथार्थपूर्ण रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं ।

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    1. शुक्रिया आदरणीया जिज्ञासा जी। अपना और अपने निकट जनों का ख्याल रखें।
      आभार

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