Sunday 1 September 2019

सुधि के क्षण

जाने कब, ढ़ह जाए ये तन,
अंगारों मे कब, दह जाए ये जीवन,
शीतल सी ओ मंद पवन,
बस दो पल को ही,
ले आ, सुधि के वो ही क्षण!

जीवन से दूर, कहीं चला था जीवन,
तोड़ कर तटबंध, कहीं बहा ये प्रतिक्षण,
आशा के बंध, उम्मीदों के तटबंध,
पल भर में टूटे थे, मन के सारे कटिबंध,
बिखर चुकी थी, अल्हड़ सी तरुणाई,
सूख चुकी थी, गंधभरी ये अमराई,
आश्वस्ति, दे गई थी पुरवाई!

शांत चित्त हुआ था, विचलित मन,
पर मंजूर न थे, किस्मत को वो भी क्षण,
बींध रहे थे, तन को तेज किरण,
जाने कब मुरझाते, बागों की अमराई,
सिमट चुकी थी, पेड़ों की परछाईं,
उम्मीदों के ढ़ेह, तभी थी आई,
सुधि-क्षण, लाई थी पुरवाई!

जाने कब, ढ़ह जाए आशा,
कब जीवन में, समा जाए निराशा,
चंचल ढ़ेह सी बह तू पवन,
बस दो पल को ही,
ले आ, सुधि के वो ही क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

6 comments:

  1. बहुत सुंदर यथार्थवादी रचना सुंदर शब्द संयोजन।

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    1. प्रेरक शब्दों हेतु आभारी हूँ आदरणीया।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-08-2019) को "बप्पा इस बार" (चर्चा अंक- 3447) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    श्री गणेश चतुर्थी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत ही सुन्‍दर भावमय करती पंक्तियां
    वक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें|
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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    1. प्रेरक शब्दों हेतु साधुवाद आदरणीया। अवश्य ही ... आपकी रचनाओं को पढना हमारे लिए अनमोल होगा।

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