Sunday, 16 February 2020

भटकाव - इक होड़

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कविताओं से दूर, इक धार बही है,
जितना जो दूर, पार वही है!
भटकावे का, द्वार यही है,
लेकिन, कविताओं को है बहना,
पाँच सात पाँच, भी गिनना,
क्यूँ बंधकर बहना!
बंधने की, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कहते हैं वो, यह कोई बिंब नही है,
मैं जो समझूँ, बिंब वही है!
भाव, इशारों में मत कहना,
बिंब ना बने, तो यूँ, चुप ही रचना,
पाँच सात पाँच, का चक्कर,
फिर ना करना,
चारो ओर, यही शोर मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

समझाते हैं वे, नियम कह-कह कर,
समीक्षाओं के, हठीले भँवर!
खो जाते हैं, भाव हो मुखर,
बहते ये भाव, नियमबद्ध हो कैसे,
पाँच सात पाँच, ही कहना,
या चुप ही रहना!
हर ओर, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

2 comments:

  1. कितनी बड़ी बात कही भाई साहब।
    सारे धर्म शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा को भक्तों का भाव प्रिय है । स
    शबरी तो कोई पूजा-पाठ नहीं जानती थी ।भगवान ने उसका झूठा बैर भी खा लिया न ?
    फिर रचनाएंँ जो हम माँँ सरस्वती को समर्पित करते हैं । उसको बंधन में रख क्यों जटिल बनाया जा रहा है। गंगा पहाड़ से निकली थी तो निर्मल थी। जब बड़े-बड़े बांधों के माध्यम से उसे रोक दिया गया तो अब मलिन हो गई ।
    सादर।

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    1. आपने सही समझा भाई साहब। लोग क्यूँ हमें बंधन में बांधने पर तुले हैं । हम तो प्रवाह हैं, यूँ ही बहेंगे।

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