तब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!
हँस उठी, कोख!
वो हँसीं, एक जन्मी,
विहँस पड़ी, संकुचित सी ये दिशाएँ,
जगे बीज, हुए अंकुरित, करोड़ों आशाएँ,
करोड़ों नयन, करोड़ों मन,
धड़के, करोड़ों धड़कन,
जगी, एक सी गुंजन,
एक सा कंपन!
हँस उठी, कोख!
कह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!
हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुन्दर गवेषणा
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय मंयक जी।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 11 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार।
Deleteहर नया सृजन तत्पर है जन्म लेने को जैसे इन शांदों द्वारा ... बहुत सुन्दर कल्पना के शब्द ... लाजवाब रचना ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय नसवा साहब।
Deleteवाह!बेहतरीन सृजन आदरणीय सर.
ReplyDeleteतब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!..वाह!
आभारी हूँ आदरणीया अनीता जी ।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-0६-२०२०) को 'पत्थरों का स्रोत'(चर्चा अंक-३७३१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
सादर आभार
Deleteकह उठा, कालपथ,
ReplyDeleteजग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!
आन्नद आ गया इस रचना को पढ़कर ।
आपकी प्रतिक्रिया ने मन मुदित कर दिया। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय।
Deleteवाह
ReplyDeleteशुक्रिया सर।
Deleteबहुत बढ़िया मजा आया पढ़ कर
Deleteआभारी हूँ आदरणीय
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ReplyDeleteकह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!
हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!
वाह लाजवाब
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ज्योति जी।
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