Thursday, 11 June 2020

कोख

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

हँस उठी, कोख!

तब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!

हँस उठी, कोख!

वो हँसीं, एक जन्मी,
विहँस पड़ी, संकुचित सी ये दिशाएँ,
जगे बीज, हुए अंकुरित, करोड़ों आशाएँ,
करोड़ों नयन, करोड़ों मन,
धड़के, करोड़ों धड़कन,
जगी, एक सी गुंजन,
एक सा कंपन!

हँस उठी, कोख!

कह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

18 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 11 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. हर नया सृजन तत्पर है जन्म लेने को जैसे इन शांदों द्वारा ... बहुत सुन्दर कल्पना के शब्द ... लाजवाब रचना ...

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय नसवा साहब।

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  3. वाह!बेहतरीन सृजन आदरणीय सर.
    तब, कोख ने जना,
    एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
    एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
    एक कामना, एक कल्पना,
    एक चाह, एक सपना,
    और, विरान राहों में,
    कोई एक अपना!..वाह!

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-0६-२०२०) को 'पत्थरों का स्रोत'(चर्चा अंक-३७३१) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  5. कह उठा, कालपथ,
    जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
    यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
    एक ही पथ, एक ही राह,
    रख न कोई और चाह,
    बदल न, तू प्रवाह,
    एक है गर्भगाह!
    आन्नद आ गया इस रचना को पढ़कर ।

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    1. आपकी प्रतिक्रिया ने मन मुदित कर दिया। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय।

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  6. कह उठा, कालपथ,
    जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
    यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
    एक ही पथ, एक ही राह,
    रख न कोई और चाह,
    बदल न, तू प्रवाह,
    एक है गर्भगाह!

    हँस उठी, कोख!
    मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!
    वाह लाजवाब

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ज्योति जी।

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