Friday 26 June 2020

अन्तराल

काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!

मिलन!
युगों से बना सपना,
मध्य, अपरिमित काल!
इक अन्तरजाल,
एक अन्तराल!
दूर कहीं,
बस कहने को,
एक अपना!

सत्य!
पर इक छल जैसे,
ठोस, कोई जल जैसे!
आकार निराकार,
मूर्त-अमूर्त,
दोनों ही,
समक्ष से रहे,
भ्रम जैसे!

कशिश!
मचलती सी जुंबिश,
लिए जाती हो, कहीं दूर!
क्षितिज की ओर,
प्रारब्ध या अंत,
एक छद्म,
पलते अन्तराल,
यूँ न काश!

काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

14 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 26 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत ही बढ़ीया! बार-बार पढ़ी जाने वाली रचना।

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  3. 'इक' और 'एक' में क्या अंतर है? इसका प्रयोग कहाँ-कहाँ होता है?

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    1. आदरणीय प्रकाश जी, "इक" ह्रस्व मात्रा है और "एक" दीर्घ मात्रा है बस।
      कविता में लय निर्माण व मात्रा संतुलन हेतु दीर्घ मात्रा "एक" के स्थान पर ह्रस्व मात्रा रखने के लिए इस शब्द का लधु रूप 'इक' का प्रयोग किया है मैने।

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    2. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।🙏

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  4. ये काश न होता तो सबकुछ सरल हो जाता संसार में
    बहुत बढ़िया

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    1. प्रेरक शब्दों हेतु आभारी हूँ आदरणीया कविता जी।

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  5. कशिश!
    मचलती सी जुंबिश,
    लिए जाती हो, कहीं दूर!
    क्षितिज की ओर,
    प्रारब्ध या अंत,
    एक छद्म,
    पलते अन्तराल,
    यूँ न काश!

    काश!
    गहराता न ये अन्तराल,
    इतने दूर न होते,
    ये जमीं
    ये आकाश
    अति उत्तम ,काश के साथ सब अटका हुआ है

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  6. सत्य!
    पर इक छल जैसे,
    ठोस, कोई जल जैसे!
    आकार निराकार,
    मूर्त-अमूर्त,
    दोनों ही,
    समक्ष से रहे,
    भ्रम जैसे!
    वाह !!!!!!! इस तरह के अनबुझ भावों को शब्दों में साकार करना कोई आपसे सीखे पुरुषोत्तम जी | वाह्ह्ह्ह ! सादर

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    1. शब्द कम होंगे आपकी प्रतिक्रिया पर आभार व्यक्त करने हेतु। भावों को चुनकर समेटना भी संभवन हो। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।

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