वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?
मंद सी, बही थी वात,
थिरक उठे थे, पात-पात,
मुस्कुरा रही, थी कली,
सज उठी, थी गली,
उन आहटों में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था
सिमट, रही थी दिशा,
मुखर, हो उठी थी निशा,
जग रही थी, कल्पना,
बना एक, अल्पना,
उस अल्पना में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था
वो ख्वाब का, सफर,
उनींदी राहों पे, बे-खबर,
वो जागती, बेचैनियाँ,
शमां, धुआँ-धुआँ,
उस रहस्य में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था
वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 02 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-06-2020) को "ज़िन्दगी के पॉज बटन को प्ले में बदल दिया" (चर्चा अंक-3721) पर भी होगी।
ReplyDelete--
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय ।
Deleteबेहतरीन...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय प्रकाश जी।
Deleteसिमट, रही थी दिशा,
ReplyDeleteमुखर, हो उठी थी निशा,
जग रही थी, कल्पना,
बना एक, अल्पना,
उस अल्पना में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था
बहुत बढ़ियाँ
आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा हेतु आभारी हूँ आदरणीया ।
Deleteकल्पनाओं में अल्पनाओं का निर्माण ...
ReplyDeleteचाहे गौण ही ...
बहुत खूबसूरत उड़ान कल्पनाओं की ... बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ...
हृदय तल से आभार आदरणीय नसवा जी।
Deleteजिसके लिए इतने सुंदर अंतरा लिखे गए वह गौण कैसे? विरोधाभास हो रहा है, गौण शब्द खटक रहा है।
ReplyDeleteरचना को उकेरने व विशिष्ट टिप्पणी हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया मीना जी।
Deleteजीवन में सब हासिल हो, यह मुमकिन नहीं। पर, जो गौण होकर भी अपनी सशक्त उपस्थिति का एहसास दिलाए, उस अनुभूति की बात ही अलग है।
पुनः शुक्रिया ।
वो ख्वाब का, सफर,
ReplyDeleteउनींदी राहों पे, बे-खबर,
वो जागती, बेचैनियाँ,
शमां, धुआँ-धुआँ,
उस रहस्य में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था
कभी कभी इक पंक्ति आकर्षक का लेती है और उसके आकर्षण में बंधे इक सांस में ही पूरी रचना पढ़ जाते हैं और बिना किसी धुन के गीत पनप उठता है। ..कुछ ऐसी ही रचना है ये
खूबसूरत
आदरणीया जोया जी, कभी-कभी कोई पल बस छूकर गुजर जाता है और दै जाता है अंतहीन सा कसक।
Deleteबस यही कुछ है।
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
जरा, मौन था!
ReplyDeleteवो, तुम न थे, तो वो, कौन था?
मंद सी, बही थी वात,
थिरक उठे थे, पात-पात,
मुस्कुरा रही, थी कली,
सज उठी, थी गली,
उन आहटों में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था.. बहुत ही खूबसूरत सृजन सर.
सादर
कुछ लिखते वक्त कभी कोई जख्म फिर उभर आए, ऐसा ही कुछ उभर आया यहाँ ।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीया अनीता जी ।
वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
हार्दिक आभार आदरणीय ज्योति खरे जी।
Deleteबहुत ही सुंदर गीत ।
ReplyDeleteआदरणीय अखिलेश जी, इस पटल पर हार्दिक स्वागत है आपका । आपकी प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ ।
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