पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!
तन तक, सीमित, रहती नहीं चाहत,
रूह कहीं, पाती नहीं राहत,
बुझती, ये प्यास नहीं,
प्यासा कण-कण, भटकता वन-वन,
सिमटता, यह रेगिस्तान नहीं,
फैलाव., भटकाता है!
पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बिखरे पल, सिमटते, कब दामन में,
टूटे मन, भटकते इस तन में,
पाते, मन आस नहीं,
दो पल, गर बहल भी जाए, दो तन,
मिलता, इन्हें समाधान नहीं,
विलगाव, भरमाता है!
पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
ठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
पर, वो जज्बात नही,
सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
खिलाते, इक अरमान नहीं,
भटकाव, तरसाता है!
पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
जब तक ये पाने की ख्वाहिश रहती तब तक न भटकता ही रहता ।
ReplyDeleteमन के भावों को शब्द दिए हैं। सुंदर रचना ।
बहुत-बहुत धन्यवाद, विनम्र आभार आदरणीया संगीता जी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२४-०७-२०२१) को
'खुशनुमा ख़्वाहिश हूँ मैं !!'(चर्चा अंक-४१३५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
शुक्रिया आदरणीया
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteबेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
ReplyDeleteठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
पर, वो जज्बात नही,
सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
खिलाते, इक अरमान नहीं,
भटकाव, तरसाता है! बहुत सुंदर रचना आदरणीय ।
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
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