Saturday 31 July 2021

तिश्नगी-2

ले जाऊँ किधर, उनकी यादों का शहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

भूलती है कहाँ, दो आँखों का वो जहां,
पिघलते धूप सा, हल्का वो धुआँ,
मिले जो रंग वही, कहीं मैं जाऊँ ठहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर....

वही तो रंग है, पर, वो फागुन है कहाँ, 
भीगा सा, बादलों का, वो कारवाँ,
बे-वक्त, उमर आया, था एक पतझड़,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर....

सिमटी-सिमटी, गुजर रही, वो चांदनी,
ज्यूँ राग से, मुकर गई हो, रागिनी,
धूँधलाती रही, रात भर, वही रहगुजर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर, उनकी यादों का शहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

2 comments:


  1. सिमटी-सिमटी, गुजर रही, वो चांदनी,
    ज्यूँ राग से, मुकर गई हो, रागिनी,
    धूँधलाती रही, रात भर, वही रहगुजर,
    भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!
    ...जीवन में अगर अभिलाषा न हो तो तो कोई भटकन भी नही । बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना।

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