झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!
झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!
झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)