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Sunday 12 February 2023

दबी परछाईयां

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं जम गए, गम के बादल,
ढ़ल चुका, बेरंग आंचल सांझ का,
चुप रह गई, मुझ संग,
तन्हाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं विहंसते, वो फूल कैसे,
मुरझाते रहे, आस में जो धूप के,
बिन खिले ही, रह गए,
रंग सारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

छुप गई, रुत किस ओर,
रुख-ए-रौशन, ज्यूं बन गए बुत,
यूं बुलाते ही, रह गए,
ये ईशारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं थम गए, बढ़ते ये कदम,
ज्यूं थक चुके, ये बादल, वो गगन,
सिमटकर, संग रह गई,
परछाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 4 October 2021

सूनी ये वादियां

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

अक्सर ओढ़ कर, खामोशियां,
लिए अल्हड़, अनमनी, ऊंघती, अंगड़ाइयां,
बिछा कर, अपनी ही परछाईयां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

पल वो क्या, जो चंचल न हों,
प्रणय हों, पर अनुनय-विनय के पल न हों,
संग हो, पर ये कैसी तन्हाईयां,
खोए हो, तुम कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

देखो, वो पर्वत, कब से खड़ा,
छुपाए पीड़ मन के, तन्हाईयों में, हँस रहा,
जरा, फिर बिछाओ परछाईयां,
तुम भी, बैठो यहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

अक्सर, पलों को, बिखेर कर,
यूं ही हौले से, बहते पलों को झकझोरकर,
छोड़ कर, उच्श्रृंखल क्षण यहां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)