मैं चाहूँ....
ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!
मैं चाहूँ....
नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!
मैं चाहूँ....
कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!
मैं चाहूँ....
मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!
मैं चाहूँ....
तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!
मैं चाहूँ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
ReplyDeleteछू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!
बहुत सुंदर प्रेम हर शब्द से छलक रहा हैं
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(३०-१०-२०२२ ) को 'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-४५९६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सादर आभार
Deleteकोमल भावों से बुनी रचना, किंतु यदि मेरे की जगह तेरे हो जाये और तेरे की जगह मेरे तो उम्मीद पूरी हो सकती है
ReplyDeleteमैं जरा सा स्वार्थी हूँ इस मामले में 😌
Deleteवाह अद्भुत मन के भावों को शब्दों के माध्यम से
ReplyDeleteअभिव्यक्त करती आपकी यह रचना बहुत ही सुन्दर है।
हार्दिक आभार आदरणीया
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